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है। नहीं, उसने जान ही लिया कि संतोष भी व्यर्थ है, असंतोष भी व्यर्थ है। उसने बीमारी तो फेंकी ही फेंकी, साथ-साथ औषधि और डॉक्टर का प्रिस्क्रिप्शन भी फेंक दिया है। अब उसको रखने की कोई जरूरत नहीं है।
ऐसा व्यक्ति निरुद्विग्न है। अब उसके भीतर कोई उद्वेग नहीं है। अब कोई द्वंद्व नहीं उठता। शांति-अशांति, सुख-दुख, सफलता-असफलता, धर्म-अधर्म, संसार - मोक्ष, ऐसे कोई द्वंद्व नहीं उठते । सारे द्वंद्वों के बाहर । ऐसा व्यक्ति परम आनंद में लीन है।
'कर्तृत्वरहित...।'
और ऐसा व्यक्ति अब नहीं देखता कि मेरा कोई कर्तत्व है, कि मुझे कुछ करना है। जो अस्ि करा लेता, हवा का झोंका जहां ले जाता सूखे पत्ते को, चला जाता। अब वह कर्तव्य की भाषा में नहीं बोलता। अब वह यह नहीं कहता, यह मेरा कर्तत्व है। मुझे करना है । मुझे करना ही होगा। मैं नहीं करूंगा तो कौन करेगा? मैं नहीं करूंगा तो संसार का क्या होगा ? इस तरह की भाषा नहीं बोलता । वह कहता है, मैं नहीं करूंगा, कोई और करेगा। क्योंकि जिसको करवाना है, इस विराट का जो लीलाधर है, इस विराट के पीछे छिपी हुई जो ऊर्जा शक्ति है, वह मुझसे नहीं तो किसी और से करा लेगी।
यही तो कृष्ण ने अर्जुन से कहा, तू मत भाग क्योंकि अगर उसे मारना ही है... और तू नान कि जिनको तू यहां खड़े देखता है युद्ध में, वे मर ही चुके हैं। तू सिर्फ निमित्त मात्र है। तू नहीं मारेगा, कोई और मारेगा। यह धनुष गांडीव का अगर तेरे कंधे न चढ़ेगा, किसी और के कंधे चढ़ेगा। तेरे भागने कुछ भी न होगा। जो होना है, होकर रहेगा। जो होना है वही होगा । इसलिए तू भाग, न भाग अंतर नहीं पड़ता। नाहक भागने में तेरा अहंकर निर्मित होगा । तू परमात्मा को समर्पित न हो सका। तूने सब न छोड़ दिया। तूने यह न कह दिया कि जो करवाओ, करूंगा। तूने अपने को बचा लिया। तेरा कर्तापन छोड़ दे ।
'संतोषरहित, कर्तृत्वरहित, स्पंदरहित... ।'
स्पंद उठते ही हैं वासना के कारण, आकांक्षा के कारण। नये-नये स्पंद उठते हैं।
तुम देखा, अगर कभी जीवन में स्पंद नहीं उठते तो तुम धीरे-धीरे मुर्दा होने लगते हो। तुम्हें नये स्पंद चाहिए। एक धंधा किया, अब ठीक है। अब कोई नया धंधा चाहिए ताकि फिर से स्पंदन उठे, फिर से जीवन - धार बहे। एक दिशा में सफलता पा ली, अब दूसरी दिशा में भी सफलता चाहिए। धन कमा लिया, अब राजनीति में भी पद चाहिए। राजनीति कमा ली, अब ध्यान भी करना है।
नये-नये स्पंदन उठते हैं। वासना नये-नये अंकुर फोड़ती है। वासना तुम्हें कभी ठहरने नहीं देती। इधर एक से चुके नहीं कि दूसरी यात्रा शुरू। एक यात्रा पूरी भी नहीं होती कि दूसरे का आयोजन तैयार हो जाता है।
महाशय व्यक्ति स्पंदनरहित होता है। उसके जीवन में अब कोई स्पंदना नहीं है, कोई उत्तेजना नहीं है । अब कुछ पाने को नहीं है, कुछ जाने को नहीं है, कहीं पहुंचने को नहीं है। पहुंच गया ! जहां है वहीं उसकी मंजिल है ।
इस सत्य की उदघोषणा अगर तुम्हें समझ में आ जाये तो तुम इसी क्षण नाच उठोगे। तुम जहां
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5