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जब कोई आदमी मेरे पास आकर कहता है कि मैं तो बिलकुल संतुष्ट हूं, तभी मुझे लगता है यह आदमी असंतुष्ट होना चाहिए। नहीं तो यह संतोष की बात ही क्यों कर रहा है? खोज-बीन करता हूं तो फौरन पता चल जाता है, है तो असंतुष्ट, अपने को मना-बुझाकर संतुष्ट कर लिया है। ठोंकपीटकर, जमा-जमूकर बैठ गये हैं। है तो असंतोष गहरा, लेकिन अब करें क्या? असहाय हैं। जो कर सकते थे, करके देख लिया; उससे कुछ होता नहीं। उछलकूद बहुत कर ली, अंगूरों तक पहुंच नहीं पाये। अब कहते हैं, खट्टे हैं। अब कहते हैं, हम तो संतुष्ट हैं। - हमें धन ज्यादा नहीं चाहिए। ऐसा नहीं कि नहीं चाहिए, अगर आज पड़ा मिल जाये राह के किनारे तो उठा लेंगे। कहते हैं, हमें कोई पद नहीं चाहिए, लेकिन अगर आज छींका टूटे बिल्ली के भाग्य से
और कोई पद सिर पर आ बैठे तो मगन हो जायेंगे। प्रतीक्षा ही कर रहे थे। वह संतोष इत्यादि सब समाप्त हो जायेगा। अगर कुछ मिल जाये तो अभी तैयार हैं। लेकिन सब चेष्टा करके देख ली, मिलता नहीं। अब अहंकार को बचाने का एक ही उपाय है : संतोष। ____ इसे थोड़ा समझना। संतोष कहीं तुम्हारे अहंकार को बचाने के लिए उपाय न हो। अक्सर तो होता है। क्योंकि दौड़ते हैं और हर बार हारते हैं। तो हर बार पीड़ा होती है और अहंकार टूटता है, बिखरता है। अब दौड़ना ही छोड़ दिया। अब कहने लगे, हमें दौड़ में रस ही नहीं है। हम तो संतोषी आदमी। हमें क्या दौड़ में लेना-देना! यह तो पागलों का काम है कि दौड़ते रहो ___यह तरकीब न हो। यह कहीं उपाय न हो। यह आड़ न हो। जानते तो हैं कि दौड़ेंगे तो गिरेंगे। जानते हैं, कि दौड़ेंगे तो जीत न सकेंगे। तो अब दौड़ते ही नहीं। लेकिन मन को समझाने के लिए कोई उपाय तो चाहिए। दूसरों को समझाने के लिए कोई उपाय तो चाहिए-कोई रैशनलाइजेशन, कोई तर्क। अब उन्होंने तर्क खोज लिया है कि हमें रस ही नहीं है।
तुम अपने संन्यासियों में, मुनियों में, साधु-महाराजों में निन्यानबे प्रतिशत ऐसे लोग देखोगे जो हारे हुए लोग हैं। जो जीवन में जीत नहीं सकते थे; जिनके पास प्रतिभा जीतने योग्य थी भी नहीं। वे बैठ गये। वे कहते हैं, अंगूर खट्टे हैं। अब वे दूसरों को समझा रहे हैं। जो दौड़ रहे हैं उनको समझा रहे हैं कि दौड़ो मत। इसमें कुछ सार नहीं है, सब असार है। दौड़ना वे खुद भी चाहते हैं, मगर जानते हैं कि अपनी सामर्थ्य नहीं, अपनी सीमा नहीं। इसलिए अब निंदा करो।
संसार की जो निंदा कर रहा हो, खूब गौर से देखना, कहीं न कहीं उसका संसार में रस अटका होगा। नहीं तो निंदा भी क्यों करेगा? मैं तो तुमसे कहता हूं कि जाओ संसार में, दिल खोलकर जाओ। जूझ लो। देख ही लो, अगर कुछ हो देखने को। पा ही लो अगर कुछ पाने को हो। ऐसे अधूरे मत लौट आना।
अधरे लौटने का आकर्षण है। बीच में रुक जाने का आकर्षण है। जब देखो कि हारने लगे, और लोग जीतने लगे, जब देखो कि दूसरे पहुंचने लगे, तब बहुत मन होता है ऐसा कि अब यही कह दो कि दौड़ ही बेकार है। कम से कम कुछ तो बचाव हो जायेगा, सुरक्षा हो जायेगी, निंदा कर दो संसार
की।
__इसलिए अष्टावक्र कहते हैं, ऐसा पुरुष उद्वेगरहित है और संतोषरहित। तत्क्षण जोड़ दिया उन्होंने एक शब्द, जो बड़ा बहुमूल्य है। ऐसे व्यक्ति को तुम यह मत सोच लेना कि उसने संतोष कर लिया
| महाशय को कैसा मोक्ष!
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