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तुमने कभी देखा-कंजूस आदमी की आंखें देखीं? उनमें वैसी ही गंदी घिनौनी छाया दिखाई पड़ने लगती है जैसे घिसे-पिटे सिक्कों पर होती है। तुमने कंजूस, कृपण आदमी का चेहरा देखा? उसमें वैसा ही चिकनापन दिखाई पड़ने लगता है घिनौना जैसा सिक्कों पर होता है। घिसते हैं एक हाथ, दूसरे हाथ, उधार चलते रहते हैं, वैसा ही घिनौनापन उसके चेहरे पर आ जाता है।
तुम जो चाहोगे, तुम्हारी जो चाह होगी वही तुम्हारी मूर्ति बन जायेगी। कामी की आंख देखी? उसका चेहरा देखा? उसके चेहरे पर कामवासना प्रगाढ़ होकर मौजूद हो जाती है। उसके मन की भी पूछने की जरूरत नहीं, उसका चेहरा ही बता देगा। क्योंकि चित्त पूरा का पूरा चेहरे पर उंडला आता है। चेहरा तो दर्पण है। जो आकांक्षा भीतर चलती है. चेहरे पर उसके चिह्न बन जाते हैं. मिटते नहीं।
बड़ी पुरानी सूफी कथा है। एक सम्राट ने-जो मूसा का भक्त था-अपने चित्रकार को कहा, राज्य के बड़े से बड़े चित्रकार को, कि मूसा की एक तस्वीर बना दो मेरे दरबार में लगाने को। वह चित्रकार गया। मूसा जीवित थे। वह मूसा के पास रहा, महीनों में तस्वीर पूरी की, फिर वह आया।
और वह तस्वीर दरबार में लगी तो राजा नाखश हआ। उसने कहा, यह तस्वीर मसा की नहीं मालम पड़ती। चेहरे पर तो ऐसे लगता है, जैसे कोई हत्यारा हो। चेहरे पर तो ऐसे लगता है जैसे कोई कामी हो। चेहरे पर शांति की, ध्यान की, समाधि की झलक नहीं है। कुछ भूल हो गई।
चित्रकार ने कहा, मैंने कुछ भूल नहीं की है। जैसा चेहरा था वैसा ही अंकित कर दिया है। सम्राट मूसा को मिलने गया और उसने मूसा को कहा कि मुझे बड़ी बेचैनी होती है उस चित्र को देखकर। वह आपका चित्र नहीं मालूम पड़ता। उस पर तो ऐसा लगता है, जैसे किसी हत्यारे की छाया हो। आंख में जैसे किसी गहन वासना का रोग हो। चेहरे पर आपकी परम आभा और दीप्ति नहीं है।
मूसा हंसने लगे। और मूसा ने कहा, चित्रकार ठीक है। वह मेरे पहले दिनों की कथा है। वे चिह्न गहरे पड़ गये हैं, मिटते नहीं। मैं बदल गया लेकिन चेहरे पर जो चिह्न पड़ गये हैं वे मिटते नहीं। वह मेरे आधे जीवन की कहानी है। अब मैं ध्यान भी करता हूं, अब मैं शांत भी हूं, अब कोई वासना भी नहीं रही है, अब कोई संघर्ष भी नहीं है, हिंसा, क्रोध भी नहीं है लेकिन वह सब था। चित्रकार ने ठीक पकड़ा। उसने चमड़ी के भीतर पकड़ लिया। मैं भी जानता हूं। जब मैं गौर से आईने में अपने को देखता हूं, गौर से देखता हूं तो मुझे भी दिखाई पड़ती हैं वे छायायें, जो कभी थीं; जिनके चिह्न पड़े रह गये हैं। सांप निकल गया है लेकिन राह पर लकीर पड़ी रह गई है। रस्सी जल गई है, ऐंठ रह गई है।
तुम जो हो-तुम्हारी वासना की छाप, वही हो तुम।
महाशय का अर्थ है, जिसने अंतिम वासना भी छोड़ दी। मोक्ष को पाने की वासना भी छोड़ दी। ऐसा व्यक्ति विक्षेपरहित। और अनूठी बात सुनते हो?
अष्टावक्र कहते हैं, 'और समाधिरहित।'
जब विक्षेप ही न रहा तो समाधि की क्या जरूरत? समाधि तो ऐसी है जैसे औषधि। रोग है तो औषधि की जरूरत है। रोग ही न रहा तो औषधि की क्या जरूरत? समाधि का अर्थ होता है समाधान। समस्या है तो समाधान चाहिए। समस्या ही न रही तो समाधान की क्या जरूरत! तो यह बड़ा अनूठा सूत्र है
असमाधेरविक्षेपान्न मुमुक्षुर्न चेतरः।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5