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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] से छह अंगुल प्रमाण ‘पाद' होता है । (दोपायायो विहत्थी) दो पादों की एक 'वितस्तो' होती है (दो विहत्थीयो रयणी ) दो वितस्तियों को एक 'रत्नो'-'हाथ' होता है । (दो रयणीयो कुच्छी ) दो रनियों की एक 'कुक्षि' होती है ( दो कुच्छिश्रो दंडं ) दो कुत्तियों का एक दंड होता है। ( घणुजुगेनालियाअक्खमूसले ). धनुष्, युग, नालिका, अक्ष, मुशल, ये सब छयानवे अंगुल प्रमाण होते हैं (दो धणुसहस्साई गाउयं ) दो सहस्र धनुष का एक 'गव्य'-कोस होता है ( चत्तारि गाउयाई जोअणं ) चार कोसों का एक योजन' होता है (एएणं अंगुलप्पनाणेणं किं पयोयणं ?) इस अंगुल प्रमाण का क्या प्रयोजन है ? (एएणं अंगुलप्पमाणेणं ) इस अंगुल प्रमाण से (जे णं जया मणुस्सा हवन्ति) जो जिस काल में मनुष्य होते हैं (तेसिं णं तया अारामुज्जाणं) उनके बाग, आराम, उद्यान सब आत्मांगुल से मान किये जाते हैं (काणणवण ) सामान्य वृक्ष युक्त अथवा अटवी पवत युक्त जो वन है उसको 'कानन' कहते हैं।
और जिस स्थान में एक जाति के वृक्ष हों उसको 'वन' कहते हैं (वणसंडवणराइनो) एक जाति के वृक्षों से आकीर्ण वनको 'वनखण्ड' और वन पंक्ति को 'वनराजि' कहते हैं ( श्रगडतलागदह ) कूप, तड़ाग, हृद, ( नदीवात्रि ) नदी, वापी (पोक्खरिणं ) वृत्त जलाशय को 'पुष्करिणी' कहते हैं तथा कमलों से युक्त ( दीहिय ) दीर्घ जलाशय (गुजालियायो ) वक्र गुजालिका-जलाशय विशेष (सर) स्वयं संभूत जलाशय (सरपंतीप्रानो) सर पंक्ति रूप किए हुए, जैसे कि एक सर से पानी द्वितीय तृतीयादि सरों में चला जावे ( सरसरपंतियाउ) सरसरपंक्तियाँ एक सर से द्वितीय तृतीय आदि में पानो वा पुरुषों का संचार हो सके, कपाटादि के द्वारा वा अन्य प्रकार से ( विल
यानो) कूपों की पंक्तियां (देवकुल) मन्दिर विशेष (सभा) सभा-पुस्तकशाला अथवा जिस स्थानमें अनेक पुरुषों का समूह एकत्र होवे (पवा) पर्व स्थान तथा जलपान स्थान (थूभ) स्तूप (चेईय * ) मृत्तिका आदि की वेदिका बनाना ( खाइय ) खाई उसे कहते हैं जो नीचे से संकीर्ण हो और ऊपर से विस्तीर्ण हो (परिहाओ) परिखा (पागर ) नगरकोट (अष्टालय) प्राकार-ऊपर आश्रयस्थान ( चरिय ) गृहों और प्राकार के अन्तर में जो अष्ट हस्त प्रमाण विस्तीर्ण राजमार्ग हो उसे 'चरिका' कहते हैं (दार) द्वार (गोपुर) द्वारों के जो परस्पर अन्तर स्थान हैं उन्हें 'गोपुर' कहते हैं अथवा राज्य भवन (पासाय) प्रासाद (महल) महल (सिघाडगतिगचक्कच मुह) शृङ्गार
* यह पाठ टीकाकार ने ग्रहण नहीं किया है। इसलिये यह प्रक्षेप प्रतीत होता है । तथा
चैत्य शब्द का यथा स्थान अर्थ करना चाहिये।
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