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अनेकान्त-57/1-2
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वर्तमान में इच्छाओं के कारण उपयोग शुभ-अशुभ रूप निरंतर परिणमित हो रहा है। सर्व परिग्रह एवं इच्छाओं के परित्याग से उपयोग शुद्धात्म स्वरूप की ओर उन्मुख हो स्थिर होता है तभी आत्मा आत्मा के ध्यान द्वारा शुद्धात्मा को प्राप्त करता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार की गाथा 144 में घोषित किया कि जो सर्व नय पक्षों से रहित कहा गया है वह समयसार है। इसी समयसार को ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के नाम से पुकारते हैं। भिन्न नाम होने पर वस्तु एक ही है। इस गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द देव ने शुद्धात्मानुभव की विधि दी जो इस प्रकार है- पहिले श्रुतज्ञान से आगमज्ञान द्वारा ज्ञानस्वभाव आत्मा का निश्चय-निर्णय करे फिर इन्द्रिय-मन रूप मतिज्ञान को मर्यादा में लेकर आत्म सम्मुख करें पश्चात् श्रुतज्ञान रूपी नय पक्षों के विकल्पों को भी मर्यादा में लेकर श्रुतज्ञान को आत्म सम्मुख करे तभी एक अखंण्ड प्रतिभासमय, अनंत, परमात्म स्वरूप समयसार का आत्मा अनुभव करता है। उसे ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहा है, जो आत्म अनुभव से अभिन्न है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इसे सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहा है (मोक्ष पाहुड-5)।
आत्मानुभूति की प्रक्रिया में भाव और भावनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को आधार कर आचार्य कल्प पं. आशाधर जी ने समस्त अनुयोगों का रसपान कर अध्यात्म रहस्य नामक लघु ग्रंथ में निम्न सोपान दर्शाये(1) श्रुति-श्रुत :- जिनेन्द्र देव द्वारा उपदेशित जिनवाणी आत्मा को प्रशस्त ध्यान की
ओर लगाकर शुद्धात्मा-ध्येय को प्राप्त कराने की दोष रहित विधि है। (2) मति-बुद्धि :- शुद्धस्वात्मा का बुद्धिपूर्वक सम्यक निर्णय मति-बुद्धि है। जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है उसको उसी रूप में देखती हुई सदा आत्माभिमुख बुद्धि मति है। स्व-पर प्रकाशित ऐसी बुद्धि का नाम सम्यग्ज्ञान है। (3) ध्यान रूप परिणति बुद्धि-ध्याति :- शुद्धात्मा में स्थिर बुद्धि का प्रवाह-शुद्धात्मा का अनुभव कराता है जो पर पदार्थो के ज्ञान को स्पर्श नहीं करती। (4) दिव्य दृष्टि-दृष्टि :- रागादि विकल्पों से रहित ज्ञान शरीरी आत्मा का अपने शुद्ध स्वरूप में दिखाई देना दिव्य दृष्टि है अथवा जो दर्शन-ज्ञान लक्षण