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श्रमणचर्या का अभिन्न अंग अनियतविहार
-डॉ. श्रेयांसकुमार जैन श्रमण का जीवन सर्वश्रेष्ठ है, इसीलिए गृहस्थ व्रतों का पालन करता हुआ प्रतिपल प्रतिक्षण यही चिन्तन करता है कि वह दिन कब आयेगा जिस दिन मैं श्रमणधर्म को ग्रहण कर अपने जीवन को सार्थक करूँगा। चिन्तन मनन के फलस्वरूप गृहस्थ गृहवास का त्याग कर रत्नत्रयधारी निर्ग्रन्थ वीतरागी गुरु की शरण में पहुंचकर स्वेच्छाचार विरोधिनी जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार करके श्रमण (साधु) के स्वरूप को प्राप्त करता है। जीवन को मंगलमय बनाता है, उसका मूल उद्देश्य विभाव से हटकर स्वभाव में रमण करना, प्रदर्शन न कर आत्मदर्शन करना, केवल आत्मविकास के पथ पर आगे बढ़ते रहना होता है।
मूल उद्देश्य को ध्यान में रखकर नव दीक्षित साधु अपने गुरु के साथ संघीय परम्पराओं का पालन करते हुए देश देशान्तर में विहार करता है। आत्मा की साधना में लीन रहते हुए धर्म प्रभावना करता है। दीक्षा लेने के बाद साधु का विहार निरन्तर होता है। साधु के विहार के प्रसंग में आचार्य वट्टकेर स्वामी लिखते हैं
गहिदत्थेय विहारो विदिओऽगिहिदत्थ संसिदो चेव। एत्तो तदिय विहारो णाणुण्णादो जिणवरेंहिं ।। 140 ।। मूलाचार
विहार के गृहीतार्थ विहार और अगृहीतार्थ विहार ऐसे दो भेद हैं, इनके सिवाय जिनेश्वरों ने विहार की आज्ञा नहीं दी है। . जीवादि तत्त्वों के स्वरूप के ज्ञाता मुनियों का जो चरित्र का पालन करते हुए देशान्तर में विहार है, वह गृहीतार्थविहार है और जीवादि तत्त्वों को न जानकर चरित्र का पालन करते हुए जो मुनियों का विहार है, वह अगृहीतार्थसंश्रितविहार है। इन दोनों प्रकार के विहारों के अर्थ को समझकर