Book Title: Anekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 241
________________ 104 अनेकान्त-57/3-4 शब्द-कोशों में वेश्या के वारयोषित, गणिका, पण्यस्त्री आदि नाम मिलते हैं, जिनके अर्थ समूह की, बहुतों की या बाजारू औरत होता है, पर धनस्त्री या वित्त- स्त्री जैसा नाम कहीं नहीं मिला। गृहस्थ अपनी पत्नी और दासी को भोगता हुआ भी चतुर्थ अणुव्रत का पालक तभी माना जा सकता है, जब दासी गृहस्थ की जायदाद मानी जाती है। जो लोग इस व्रत की उक्त व्याख्या पर नाक भौंह सिकोड़ते हैं वे उस समय की सामाजिक व्यवस्था से अनभिज्ञ हैं, जिसमें कि दासी एक परिग्रह या जायदाद थी । अवश्य ही वर्तमान दृष्टि से जबकि दास प्रथा का अस्तित्व नहीं रहा और दासी किसी की जायदाद नहीं रही, ब्रह्मचर्याणु में उसका ग्रहण निषिद्ध माना जाना चाहिए । पं. नाथूराम प्रेमी ने कौटिलीय अर्थशास्त्र के 'दास कल्प' नामक अध्याय का उद्धरण दिया है, जिससे ज्ञात होता है कि दास-दासी खरीदे जाते थे, गिरवी रखे जाते थे और धन पाने पर मुक्त कर दिए जाते थे । दासियों पर मालिक का इतना अधिकार होता था कि वह उनमें सन्तान भी उत्पन्न कर सकता था और सन्तान होने पर वे गुलामी से छुट्टी पा लेती थीं। देखिए - स्वामिनोऽस्या दास्यां जातं समातृकमदासं विद्यात् ।। 32 ।। गृह्या चेत्कुटुम्बार्थचिन्तनी माता भ्राता भगिनी चास्याः दास्याः स्युः ।। 33 - धर्मस्थीय, तीसरा अधिकरण अर्थात् स्वामी या मालिक से उसकी दासी में सन्तान उत्पन्न हो जाय तो वह सन्तान और उसकी माता दोनों ही दासता से मुक्त कर दिए जाँए । यदि वह स्त्री कुटुम्बार्थचिन्तनी होने से ग्रहण कर ली जाए, भार्या बन जाए तो उसकी माता, बहिन और भाईयों को भी दासता से मुक्त कर दिया जाए । मनुस्मृति में सात प्रकार के दास बतलाए गए हैं ध्वजाहत (संग्राम में जीता हुआ) भुक्तदास ( भोजन के बदले रखा हुआ ) गृहज ( दासीपुत्र), क्रीत ( खरीदा हुआ) दत्रिम ( दूसरे का दिया हुआ), पैतृक ( पुरखों से चला आया) और दण्डदास ( दण्ड के धन को चुकाने के लिए जिसने

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