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अनेकान्त-57/3-4
में तो बहुत अच्छी मालूम पड़ती है, परन्तु अभी तक इस विषय में किसी शिल्पशास्त्र, प्रतिष्ठा पाठ या पूजा प्रकरण का कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया है और यह बात कुछ समझ में नहीं आती कि जो लोग दर्शन-पूजन पाठादि के अधिकारी ही नहीं माने जाते हैं, उनके लिए शिखरों पर या द्वारों पर मूर्तियाँ जड़ने का परिश्रम क्यों आवश्यक समझा गया होगा? यदि शूद्रों या अस्पृश्यों को दूर से दर्शन करने देना ही अभीष्ट होता और उनके आने जाने से मन्दिरों का भीतरी भाग ही अपवित्र होने की आशंका होती, तब तो मन्दिरों के बाहर या दीवारों में या आगे खुले चबूतरों पर ही मूर्तियाँ स्थापित कर दी जातीं। ऐसा प्रबन्ध कर दिया जाता, जिससे वे समीप आए बिना दूर से ही वन्दन कर लेते। इसके सिवाय जो लोग इन अभागे प्राणियों को दूर से दर्शन करने देने में कोई हानि नहीं समझते हैं, उन्होंने क्या कभी यह भी सोचा है कि दूर से दर्शन करने वाले उक्त प्रतिमाओं के उद्देश्य से पुष्पादि भी तो चढ़ा सकते हैं। तब क्या दूर से किया हुआ पूजन पूजन नहीं कहलायगा? और क्या मन्दिर मूर्ति से भी अधिक पवित्र होता है? ___ मेरी समझ में तो शिखर या द्वार पर जो मूर्तियाँ रहती हैं, उनका उद्देश्य केवल यह प्रकट करना होता है कि उस मन्दिर में कौन सा देव प्रतिष्ठित है अर्थात् वह किस देवता का मन्दिर है। वास्तव में वह मुख्य देव का संक्षिप्त चिन्ह होता है, जिससे लोग दूर से ही पहचान जाए कि यह अमुक मन्दिर है। ___ इस लेख में प्रेमी जी ने एक समाधान करने के साथ साथ शूद्र कहे जाने वाले व्यक्तियों के प्रति सहानुभूति भी व्यक्त की है। यद्यपि स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा है कि शूद्र प्रतिमा दर्शन कर सकते हैं, किन्तु उनका अभिप्राय यही द्योतित होता है। अभागे प्राणी शब्द से शूद्रों के प्रति उनकी करुणा प्रकट होती है।
-एल-65 न्यू इन्दिरा नगर, ए अहिंसा मार्ग, बुरहानपुर