Book Title: Anekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 259
________________ जैन दर्शन में वस्तु का अनेकान्तात्मक स्वरूप -डॉ. बसन्तलाल जैन "जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वहदि। तस्स भुवर्णेक्क गुरूणो णमो अणेगंतवायस्स।।" जिनेन्द्र वर्णी के शब्दों में- “जो कुछ भी यहाँ दिखाई दे रहा है या व्यवहार में आ रहा है, उन सबको वस्तु या पदार्थ कहने का व्यवहार लोक में प्रचलित है। वस्तु, पदार्थ और द्रव्य तीनों का एक ही अर्थ है। इसी को सैद्धान्तिक भाषा में कहा जाता है कि जो सत्ता रखता है या जो सत् है वही वस्तु पदार्थ या द्रव्य है"।' इस प्रकार वस्तु द्रव्य, सत् पदार्थ आदि सब एक ही अर्थ का प्रतिपादन करते हैं। जैन दर्शन का वास्तववाद, वास्तविकता तथा सत्ता में भेद नहीं करता। उसके अनुसार वस्तु ही सत् है और सत्ता ही वस्तु है। ___ वस्तु के स्वरूप का विवेचन करते हुए दिगम्बराचार्य मल्लिषेण ने कहा है कि-“वसन्ति गुण पर्याया अस्मिन्निति वस्तु" अर्थात् जिसमें गुण और पर्यायें रहती हैं, वह वस्तु है। यह परिभाषा दिगम्बराचार्य उमास्वामी जी की द्रव्य की परिभाषा से साम्यता रखती है। आचार्य उमास्वामी जी ने लिखा है कि“गुण पर्यायवद्-द्रव्यम्" ' अर्थात् गुण और पर्याय वाला द्रव्य है। इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि जैन मान्य वस्तु और द्रव्य एक ही अर्थ के द्योतक हैं। जिस प्रकार अग्नि का उष्णत्व से और जल का शीतलत्व से पृथक् अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार गुण तथा पर्यायों से युक्त वस्तु का अपने गुण तथा पर्यायों से पृथक अस्तित्व नहीं होता। बौद्धदर्शन की मान्यता है कि कोई भी वस्तु नित्य नहीं हो सकती। प्रत्येक वस्तु अपने उत्पन्न होने के दूसरे क्षण में ही नष्ट हो जाती है, क्योंकि नष्ट होना पदार्थो का स्वभाव है। कूटस्थ नित्य वस्तु में अर्थ क्रिया नहीं हो सकती और

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