Book Title: Anekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 264
________________ अनेकान्त-57/3-4 127 यहां केवल परिणाम दृष्टिगत होता है और वस्तु दृष्टिगत नहीं होती उस समय पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा नवीन पर्याय रूप से उत्पन्न और पूर्व पर्याय रूप से विनष्ट होने से सब वस्तु अनित्य है। सत-असत् की तरह तत् अतत् भी विधि निषेध रूप होते हैं, किन्तु निरपेक्षपने नहीं, क्योंकि परस्पर सापेक्षपने से वे दोनों तत् अतत् भी तत्त्व हैं। कथंचित एकत्व बताना वस्तु की अखण्डता का प्रयोजक है।" स्यात् नित्य का फल चिरकाल तक स्थायीपना है। स्यादनित्य का फल निज हेतुओं के द्वारा अनित्य स्वभावी कर्म के ग्रहण व परित्यागादि होते हैं। सन्दर्भ 1. (क) जिनेन्द्रवर्णी, पदार्थविज्ञान 1982, पृष्ठ 6 (ख) “हवदि पुणो अण्ण वा तम्हा दव्य सय सत्ता।" प्रवचनसार 2/13 2. मल्लिषेणाचार्य, स्याद्वादमंजरी, सन् 1935, श्लोक 23, पृष्ठ 262 3. आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5, सूत्र 37 4. हरेन्द्रसिन्हा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, 1980, पृष्ठ 105 5 जगद्विक्तक्षणं ब्रह्मब्रह्मणोऽयत्र न किचन। शकराचार्य आत्मबोध सूत्र 63 6 सांख्य कारिका 11 7. हरेन्द्रसिन्हा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा पृष्ठ 210 8. हरेन्द्रसिन्हा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा पृष्ठ 232 9 आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5, सूत्र 30 10. आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5, सूत्र 7 11. संघवी सुखलाल, तत्त्वार्थसूत्र विवेचना, पृष्ठ 134 12. आचार्य गुणभद्रस्वामी, आत्मानुशासन गाथा 171 13. आचार्य गुणभद्रस्वामी, आत्मानुशासन 172

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