Book Title: Anekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 247
________________ 110 अनेकान्त-57/3-4 ज्ञानदृष्टि (Epistimological View) से देखने वाले तत्त्ववेत्ता, जो ज्ञान के स्वरूप के आधार पर ही ज्ञेय के स्वरूप का निर्णय करते हैं, कहते हैं कि वस्तु वस्तुबोध के अनुरूप अनेक लक्षणों से विशिष्ट होते हुए भी, एक अखण्ड, अभेद्य सत्ता है। अर्थात जैसे ज्ञान विविध, विचित्र अनेकान्तात्मक होते हुए भी खण्ड-खण्डरूप अनेक ज्ञानों का संग्रह नहीं है, प्रत्युत आत्मा का एक अखण्ड अभेद्य भाव है, वैसे ही ज्ञान-द्वारा ज्ञात वस्तु भी अनेक गुणों और शक्तियों का सामूहिक संग्रह नहीं है बल्कि एक अभेद्य सत्ता है। सामान्य-ज्ञेयज्ञान की दृष्टि का संग्रहदृष्टि (Synthetic view) वाले तत्त्वज्ञों को वस्तु एकतात्मक अद्वैतरूप प्रतीत होती है। ऐसा मालूम होता है कि समस्त चराचर जगत एकता के सूत्र में बंधा है, एकता के भाव से ओत-प्रोत है, एकता का भाव सर्वव्यापक, शाश्वत और स्थायी है। अन्य समस्त भाव औपाधिक और नैमित्तिक हैं, अनित्य हैं और मिथ्या हैं। यही दृष्टि थी जिसके आवेश में ऋग्वेद 1-164-46 के निर्माता ऋषि को वैदिक कालीन विभिन्न देवताओं में एकता का मान जग उठा और उसकी हृदयतन्त्री से 'एक सत् विप्राः बहुधा वदन्ति' का राग बह निकला। यह दृष्टि ही वेदान्त-दर्शन की दृष्टि है । विशेष-ज्ञेयज्ञान की दृष्टि वा भेददृष्टि (Analytic-view) से देखने पर, वस्तु अनेक विशेष भावों की बनी हुई प्रतीत होती है। प्रत्येक भाव भिन्न स्वरूप वाला, भिन्न संज्ञावाला दिखाई पड़ता है। जितना जितना विश्लेषण किया जाय, उतना ही उतना विशेष भाव में से अवान्तर विशेष और अवान्तर विशेष में से अवान्तर विशेष निकलते निकलते चले जाते हैं, जिसका कोई अन्त नहीं है। यही दृष्टि वैज्ञानिकों की दृष्टि है। यह दृष्टि ही विभिन्न विज्ञानों की सृष्टि का कारण है। समन्वयकारि-ज्ञान की दृष्टि (Philosophical View) से देखने पर वस्तु सामान्य विशेष, अनुभाव-अनुभव्य, (subjective and objective), भेद्य-अभेद्य, नियमित-अनियमित, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, सत्-असत् तत्-अतत् आदि अनेक सहवर्ती प्रतिद्वन्दों की बनी हुई एक सुव्यवस्थित, संकलनात्मक, परन्तु

Loading...

Page Navigation
1 ... 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268