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- अनेकान्त-57/3-4
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श्रेयस है । पहला इन्द्रियतृप्ति, इच्छापूर्ति और आडम्बर - संचय का अनुयायी है। दूसरा इन्द्रियसंयम, इच्छानिरोध और त्याग का हामी है। पहला अनात्म, बाह्य, स्थूल पदार्थो का ग्राहक है । दूसरा स्वाधीन, अक्षय, सर्वप्राप्य सूक्ष्म-दशा का अन्वेषक है। पहला जन्ममरणाच्छादित नाम-रूप- कर्मवाले संसार की जननी और धात्री है। दूसरा इस संसार का उच्छेदक और अन्तकर है। जीवन के सब मार्ग इन ही दो मूल मार्गों के अवान्तरभेद हैं ।
सत्य-सम्बन्धी आचार और विचार में जो सर्व ओर विभिन्नता दिखाई देती है, वह बहुरूपात्मक सत्य का ही परिणाम है।
सत्य अनेक सत्यांशों की व्यवस्थात्मक सत्ता है - यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि एक बात को निश्चित रूप से जानने के लिये हमें कितनी ही और बातों को जानना जरूरी होता है । यह सब इसलियें न कि जो बात हमें जाननी अभीष्ट है, उसकी लोक में कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । वह तो विराट सत्य का एक सत्यांश मात्र है "। ये समस्त सत्यांश, समस्त तत्त्व, जिनको जानने की हमें इच्छा है, गुण-गुणी, कारण-कार्य, साधन-साध्य, वाचक-वाच्य, ज्ञान- ज्ञेय, आधर- आधेय आदि अनेक सम्बन्धों द्वारा एक दूसरे के इतने आश्रित और अनुगृहीत हैं कि यदि हमें एक तत्त्व का सम्पूर्ण बोध हो जाय तो वह सम्पूर्ण तत्त्वों का, सम्पूर्ण सत्य का बोध होगा । इसीलिये ऋषियों ने कहा है कि जो ब्रह्म को जानता है वह ब्रह्माण्ड को जानता है" । इसलिये आत्मा ही ज्ञातव्य है, मनन करने योग्य है, श्रद्धा करने योग्य है । इसको जानने से सर्वका जानने वाला, सर्वज्ञ हो जाता है 20। इस प्रकार का बोध ही जो समस्त सत्यांशों का, समस्ततत्त्वों का, उनके पारस्परिक सम्बन्धों और अनुग्रह का युगपत जानने वाला है, जैन परिभाषा में 'केवलज्ञान' कहलाता है। यह बोध, लोक- अनुभावित सामान्य-विशेष, एक-अनेक, नित्य-अनित्य, भेद्य- अभय, तत्-अतत् आदि समस्त • प्रतिद्वन्दों की बनी हुई सुव्यवस्थित सत्ता का युगपत् बोध होने के कारण उपर्युक्त समस्त विरोधाभासों परिमाणों (?), विकल्पों, त्रुटियों और अपूर्णताओं से रहित है। यह अद्वितीय और विलक्षण बोध है" । वास्तव में जो सम्पूर्ण सत्य को जानता है वही सम्पूर्णतया सत्यांश को जानता है । और जो सम्पूर्णतया