Book Title: Anekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 252
________________ अनेकान्त-57/3-4 115 'अज्ञानपरिषह' से प्रकट किया गया है । अज्ञानवाद और संशयवाद की उत्पत्ति के कारण भी उपर्युक्त भाव हैं - इस अनुभव के साथ ही विचारक के हृदय में ऐसी आशंका पैदा होने लगती है कि क्या सत्य का वास्तविक स्वरूप ज्ञानगम्य है भी। उसकी बुद्धि सन्दिग्धवाद और अज्ञानवाद से अनुरचित हो जाती है। वह ऋग्वेद 10-129 सूक्त के निर्माता ऋषि परमेष्ठी की तरह सोचने लगता है कि “कौन पुरुष ऐसा है जो जानता है कि सृष्टि क्यों बनी और कहाँ से बनी और इसका क्या आधार है। मुमकिन है कि विद्वान लोग इस रहस्य को जानते हों। परन्तु यह तत्त्व विद्वान लोग कैसे बतला सकते हैं। यह रहस्य यदि कोई जानता होगा तो वही जानता होगा जो परम व्योम में रहने वाला अध्यक्ष है 26 । वह पारस देश के सुप्रसिद्ध कवि, ज्योतिषज्ञ और तत्त्वज्ञ उमरखय्याम की तरह निराशा से भरकर कहने लगता है | भूमण्डल के मध्य भाग से उठकर मैं ऊपर आया। सातों द्वार पार कर ऊँचा शनि का सिंहासन पाया।। कितनी ही उलझनें मार्ग में सुलझा डाली मैंने किन्तु। मनुज-मृत्यु की और नियति की खुली न ग्रन्थिमयीमाया 31 यहाँ 'कहाँ से क्यों' न जानकर परवश आना पड़ता है। वाहित विवश वारि-सा निजको नित्य बहाना पड़ता है। कहाँ चले? फिर कुछ न जानकर इच्छा हो, कि अनिच्छा हो परपटपर सरपट समीर-सा हमको जाना पड़ता है।। तत्त्वज्ञों के इस प्रकार के अनुभव ही दर्शन-शास्त्रों के सन्दिग्धवाद और अज्ञानवाद सिद्धान्तों के कारण हुए हैं। तो क्या सन्दिग्धवाद और अज्ञानवाद सर्वथा ठीक हैं? नहीं। सन्दिग्धवाद और अज्ञानवाद भी सत्यसम्बन्धी उपर्युक्त अनक धारणाओं के समान एकान्तवाद हैं, एक विशेष प्रकारक के अनुभव की उपज हैं। इस अनुभव का आभास विचारक को उस समय होता है जब वह व्यवहार्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268