Book Title: Anekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 248
________________ अनेकान्त-57/3-4 111 अभेद्य सत्ता दिखाई पड़ती है, जो सर्वदा सर्व ओर प्रसारित, विस्तृत और उद्भव हो रही है। यह दृष्टि ही 'वीरशासन' की दृष्टि है। इसी दृष्टि द्वारा निष्पक्ष हो, साहसपूर्वक विविध अनुभवों का यथाविधि और यथास्थान समन्वय करते हुए सत्य की ऐसी विश्वव्यापी सर्वग्राहक धारणा बनानी चाहिये जो देश, काल और स्थिति से अविच्छिन्न हो, प्रत्यक्ष-परोक्ष तथा तर्क-अनुमान किसी भी प्रमाण से कभी बाधित न हो, युक्तिसंगत हो और समस्त अनुभवों की सत्यांशरूप संतोषजनक व्याख्या कर सके। ___ क्या सत्यनिरीक्षण की इतनी ही दृष्टियाँ हैं जिनका कि ऊपर विवेचन किया गया है? नहीं, यहाँ तो केवल तत्त्ववेत्ताओं की कुछ दृष्टिओं की रूपरेखा दी गई है। वरना व्यक्तित्व, काल, परिस्थिति और प्रयोजन की अपेक्षा सत्यग्रहण की दृष्टियाँ असंख्यात प्रकार की हैं। और दृष्टि अनुरूप ही भिन्न भिन्न प्रकार से सत्यग्रहण होने के कारण सत्य सम्बन्धी धारणायें भी असंख्यात हो जाती हैं। तत्त्वज्ञों की मान्यताओं में विकार ससार के तत्त्वज्ञों की धारणाओं में सबसे बड़ा दोष यही है कि किसी ने एक दृष्टि को, किसी ने दूसरी दृष्टि को, किसी ने दो वा अधिक दृष्टियों को सम्पूर्ण सत्य मानकर अन्य समस्तदृष्टियों का बहिष्कार कर दिया है। यह बहिष्कार ही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी और निःस्साहस है। इस बहिष्कार ने ही अनेक विरोधाभासि-दर्शनों को जन्म दिया है । धर्मद्रव्य अर्थात् Ether के बहिष्कार ने आत्मा और प्रकृति के पारस्परिक सम्बन्ध के समझाने में कठिनाई उपस्थित की है। आत्मा और मन का बहिष्कार दूसरी कमजोरी है। यह बहिष्कार ही जड़वाद का आधार हुआ है। प्रकृति का बहिष्कार भी कुछ कम भूल नहीं है-इसने संकीर्ण अनुभव-मात्रवाद . (Idealism) को जन्म दिया है। जीवन के व्यवहार्य पहलू पर अधिक जोर देने से लोकायत-मार्ग को महत्व मिला है। लौकिक जीवन-चर्या-जीवन के व्यवहार्य पहलू को बहुत गौण करने से छायावाद का उदय हुआ है"। सत्यानुभूति के साथ जीवनलक्ष्य का घनिष्ट सम्बन्ध - जगत और जीवन

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