Book Title: Anekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 242
________________ अनेकान्त-57/3-4 105 दासता स्वीकार की हो) याज्ञवल्क्य स्मृति के टीकाकार विज्ञानेश्वर (12वीं सदी) ने पन्द्रह प्रकार के दास बतलाए हैं। पूर्वकाल में भारत में दासी-दासों का क्रय विक्रय होता था। भले ही अमेरिका, यूरोप के समान गुलामों पर उतने भीषण अत्याचार न होते हों, जिनका वर्णन पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारतवर्ष में गुलाम रखने की प्रथा थी और उनकी हालत पशुओं जैसी थी। सन् 1855 में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने एक नियम बनाकर इसे बन्द कर दिया गया। सन् 1860 में 'इण्डियन पैनल कोड' में गुलाम खरीदना, बेचना अपराध ठहराया गया। प्रेमी जी ने एक पुराना दासी विक्रय पत्र का उद्धरण दिया है। यह 1288 की एक दस्तावेज है। इससे ज्ञात होता है कि राजा लोग युद्धकर स्त्रियों को दासी रूप में लूटकर लाते थे और उन्हें चौराहे पर खड़ी करके बेचते थे। मारपीट से तंग आकर यदि वे आत्महत्या कर लेती थी तो उसका मालिक केवल गंगास्नान कर शुद्ध हो जाता था। ऐसी दासी को दूसरे जन्म में कुत्ती या चाण्डाली के रूप में जन्म लेना पड़ता था। ___ इस प्रकार अनेक उद्धरण देकर प्रेमी जी ने प्राचीन भारत और विश्व में दास प्रथा का भयावह चित्र खींचा है। इससे उस समय के लोगों की मानसिक स्थिति और कुत्सित रिवाज का पता चलता है। आधुनिक युग में यह दास प्रथा अपने बदले हुए अनेक रूपों में प्राप्त होती है। इसे दूर करने का प्रयास किया जा सकता है। मानवीय अधिकार आयोग का गठन होना, विभिन्न सहकारी सोसायटी का गठन होना, अनेक जनकल्याण की राजकीय योजनायें इस दिशा में अच्छा कदम है। दास प्रथा का मार्मिक चित्रण किए जाने का उद्देश्य दलितोत्थान को स्वर प्रदान करता है। शूद्रों के लिए जिनमूर्तियाँ- प्रायः जैन मन्दिरों के शिखरों पर और दरवाजो की चौखटों पर जिनमूर्तियाँ दिखलाई देती हैं। उनके विषय में कुछ सज्जनों ने कुछ ही समय से यह कहना शुरू किया है कि उक्त मूर्तियाँ शूद्रों और अस्पृश्यों के लिए स्थापित की जाती रही हैं, जिससे वे मन्दिरों में प्रवेश किए बिना बाहर से ही भगवान के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त कर सकें। यह बात कहने सुनने

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