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अनेकान्त-57/3-4
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कर्मकरः' अर्थात् खरीदा हुआ काम करने वाला। पं. राजमल ने लाटी संहिता में छठे सर्ग में लिखा है
दासकर्मरता दासी क्रीता वा स्वीकता सती। तत्संख्या व्रतशुद्धयर्थं कर्तव्या सानतिक्रमात् ।। 105 ।। अर्थात्- दास कर्म करने वाली दासियाँ, चाहे वे खरीदी हुई हों और चाहे स्वीकार की हुई, उनकी संख्या भी व्रत की शुद्धि के लिए बिना अतिक्रम के नियत कर लेनी चाहिए। इसी तरह दासों की भी............
आगे और भी लिखा हैदेवशास्त्रगुरुन्नत्वा बन्धुवर्गात्मसाक्षिकम्। पत्नी परिग्रहीता स्यादन्या चेटिका मता।। अर्थात् जिसके साथ विधिपूर्वक देव, शास्त्र, गुरु को नमन करके बन्धुजनों के समक्ष ब्याह किया गया हो, वह पत्नी और उससे भिन्न चेटिका मानी गई है या दासी। आगे स्पष्ट किया है
पाणिग्रहण शून्या चेच्चेटिका सुखप्रिया।। 184
चेटिका भोगपत्नी च द्वयोर्भोगांगमात्रकः ।। 185 अर्थात् चेटिका सुखप्रिया होती है और वह केवल भोग की चीज है। इससे मालूम होता है कि काम करने वाली दासियाँ खरीदी जाती थीं और उनमें से कुछ स्वीकार भी कर ली जाती थीं। स्वीकृता का अर्थ शायद रखैल है। यशस्तिलक में सोमदेव ने लिखा है
वधू वित्तस्त्रियौ मुक्त्वा सर्वमन्यत्र तज्जने। माता श्वसा तनूजेति मतिर्ब्रह्म गृहाश्रमे ।। अर्थात पत्नी और वित्त-स्त्री को छोड़कर अन्य सब स्त्रियों को माता, बहिन और बेटी समझना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। वित्त का अर्थ धन होता है, इसलिए वित्त स्त्री से तात्पर्य धन से खरीदी हुई दासी होनी चाहिए। इसका अर्थ वेश्या भी किया जाता है, परन्तु वास्तव में दासी अर्थ ही अधिक उपयुक्त है।