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अनेकान्त-57/3-4
किया है इन दस में से द्विपद और चतुष्पद अर्थात् दोपाये और चौपाये शब्दों पर ध्यान दीजिए। ये दोनों परिग्रह हैं। जिस तरह सोना, चाँदी, मकान, वस्त्र आदि चीजें मनुष्य की मालिकी की समझी जाती है, उसी तरह दोपाये और चौपाए जानवर भी। चौपाए तो खैर अब भी मनुष्य की जायदाद में गिने जाते हैं, परन्तु पूर्वकाल में दास-दासी भी जायदाद के अन्तर्गत थे। पशुओं से इनमें यही भिन्नता थी कि उनके चार पाँव होते हैं और इनके दो। पाँचवें परिग्रह-त्याग व्रत के पालन में जिस तरह और सब चीजों के छोड़ने की जरूरत है, उसी तरह इनकी भी। परन्तु शायद इन द्विपदों को स्वयं छूटने का अधिकार नहीं था। दास-दासियों का स्वतन्त्र व्यक्तित्व कितना था, इसके लिए देखिए
सच्चित्ता पुण गंथा बंधदि जीवे सयं च दुक्खंति।
पावं च तण्णिमित्तं परिग्गहं तस्स से होई।। 1162 ।। विजयोदया टीका- सच्चित्ता पुण गंथा बंधति जीवे गंथा परिग्रहः दासीदास गोमहिष्यादयो हनन्ति जीवान् स्वयं च दुःखिता भवन्ति। कर्मणि नियुज्यमानाः कृष्यादिके पापं च स्वपरिगृहीतजीवकृतसंयमनिमित्तं तस्य भवति।
अर्थात- जो दासी, दास, गाय, भैंस आदि सचित्त परिग्रह हैं, वे जीवों का घात करते हैं और खेती आदि कामों में लगाए जाने पर स्वयं दुःखी होते हैं। इनका पाप इनके स्वीकार करने वाले मालिकों को होता है; क्योंकि मालिकों के निमित्त से ही वे जीववधादि करते हैं। इससे स्पष्ट है कि उनका स्वतन्त्र व्यक्तित्व एक तरह से था ही नहीं, अपने किए हुए पुण्य-पाप के मालिक भी वे स्वयं नहीं थे। अर्थात् इस तरह के बाह्य परिग्रहों में जो दास-दासी परिग्रह हैं, उसका अर्थ नौकर नौकरानी नहीं, जैसा कि आजकल किया जाता है, किन्तु गुलाम है। इस समय नौकर का स्वतन्त्र व्यक्तित्व है। वह पैसा लेकर काम करता है गुलाम नहीं होता।
कौटिलीय अर्थशास्त्र में गुलाम के लिए दास और नौकर के लिए कर्मकर शब्दों का व्यवहार किया गया है। अनगार धर्मामृत अध्याय 4 श्लोक 121 की टीका में स्वयं आशाधर ने दास शब्द का अर्थ किया है-'दासः क्रयक्रीतः