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कान्त-57/3-4
(सन्दर) गीत, नृत्य, कादित्र आदि से व्याप्त शाल आदि में रहने का त्याग करना चाहिए। शासनासन शुद्धि वाले संयतो को तो अकृत्रिम (प्राकृतिक) पर्वत की गुफा, वृक्ष के कोटर आदि तथा कृत्रिम शून्यागार छोड़े हुए घर आदि ऐसे स्थानों में रहना चाहिए, जो उनके उद्देश्य से नहीं बनाये गये हो और जिनमें उनके लिए कोई आरम्भ न किया गया हो। ___ मुनियों का निवास तीन प्रकार का होता है। स्थान-खड़े होना, आसन-बैठना और और शयन-सोना।
इस प्रकार की वसतिकाओं में निवास करने पर ही परीषहजय नामक तप की पूर्णता होगी आचार्यों ने प्रत्येक परीषह का स्वरूप बताकर उन पर जय प्राप्त करने वाले साधकों की प्रशंसा की है।
जैनाचार्य मठ, आश्रम आदि में स्थायी निवास करने की मुनि/आर्यिका को अनुमति प्रदान नहीं करते हैं। न जाने वर्तमान में यह प्रवृत्ति क्यों बढ़ रही है कि साधु / साध्वी/त्यागी व्रती अपनी देख-रेख में कोई न कोई आश्रम/मठ/संस्थान/संस्था का निर्माण कराकर उसी को अपना निवास बना रहे हैं। आस्था से जकड़ी समाज साधु साध्वी/त्यागी/व्रती के कहने पर शक्ति के अनुसार अर्थ सहयोग करती है और उनकी बलवती इच्छाओं को पूर्ण करना अपना कर्त्तव्य समझती है। यदि कोई प्रबुद्ध समाज के मध्य कहता है कि अपरिग्रही साधक को परिग्रही बनाकर धर्म की हानि क्यों की जा रही है। साधुओं को एक स्थान पर नहीं रहना चाहिए गृहस्थों के साथ रहने पर परीषह भी आ जाते हैं जिससे साधक की साधना में दोष लगने की संभावना रहती है। इसका उत्तर समाज के पास होता है कि ये मुनि/आर्यिका अपने साथ तो नहीं ले जायेगें। रहेगी तो अपने पास अपने लोगों के ही कार्य आयेगी। इनके निमत्ति से बाहर का रुपया हमारे गृह स्थान या तीर्थ स्थान पर लग रहा है। इसी लोभ, कषायवश स्थानीय समाज साधु साध्वी/त्यागी/व्रती का पूर्ण बढ़ चढ़कर सहयोग करते हैं। यह सहयोग नहीं है अपितु श्रमण संस्कृति को दोषपूर्ण बनाने का कारण ही है क्योंकि यह व्यवस्था साधुओं को भी प्रलोभन में फंसा देती है और याचना भी करनी पड़ती है।