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अनेकान्त-57/1-2
नहीं किया, बल्कि यह कहा कि उसे मालूम है वह कितना अज्ञानी है। ज्ञानी को अज्ञानता का आभास हो जाना चाहिए। यही उसकी निरहङ्कारवृत्ति और मार्दवता है। बोलने में इतना माधुर्य हो कि श्रोता को कटुता का आभास न हो। 'अक्ष्णा काणः' कहकर व्यंग बाण नहीं चलाना चाहिए। “शुष्को वृक्षः तिष्ठत्यग्रे" उदाहरण के सन्दर्भ में लोग जानते ही है। इस प्रकार मार्दव-धर्म आत्मा की वह सरलता और मृदुता है जिसमें किसी भी प्रकार का अहङ्कार न हो। आत्मसाधना ही उसका जीवन हो और आलोचना और प्रायश्चित्त से उसका मन-मार्जन हो रहा हो। साम्यभाव, परमार्थ का पुरुषार्थ, मोह-राग-द्वेष से विमुक्ति आदि गुण विनम्रता को जन्म देते हैं, यही मार्दव है।
सन्दर्भ 1. कुलरूवजादिबुद्धिसु तवसुदसीलेसु गारवं किचि।
जो णवि कुव्वदि समणो मद्दवधम्म हवे तस्स। बा अणु 72, स सि. 9.6,
पृ 412, रा वा 9-6 3, पृ 595, चा सा , पृ. 61 2. उत्तमणाणपहाणो उत्तमतवयरणकरणसीलो वि।
अप्पाणं जो हीलदि मदद्वयणं भवे तस्स।। -का अनु0, 395, भ. आ, 1427-1430 3 जात्वादिमदावेशादभिमानाभावो मार्दवम् । स. सि , 96 4. मार्दव मानोदयनिरोधः। औप. अभय. वृ. 16, पृ 33. 5. मद्दवं नाम जाइकुलादीहीणस्स अपरिभयसीलत्तण...... ..माणस्स उदिन्नस्स निरोहो उदयपत्तस्स विफलीकरण। दशवै चू., पृ. 18
-तुकाराम चाल, सदर,
नागपुर-440001