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अनेकान्त-57/3-4
आगन्तुक प्रतिहार या महाप्रतिहार नामक अधिकारी की उपस्थिति में ही राजा से मिल सकते थे। राजप्रसाद में राजा की रक्षा के लिए अंगरक्षक दल नियुक्त रहता था, जिसे शिरोरक्षक नाम से अभिहित किया गया है। पाणिनि ने इन अंगरक्षकों को 'राजप्रत्येनाः' कहा है, जिससे पुलिस अधिकारी का बोध होता है। कौटिल्य ने अंगरक्षकों को आत्मरक्षित नाम दिया है। राजप्रसाद तथा राजा की रक्षा करने वाले इन अधिकारियों के अतिरिक्त राजा का अभिवादन करनेवाले राज्याधिकारी भी होते थे, जिन्हें अधोनिर्दिष्ट पाँच कोटियों में विभक्त किया जा सकता है1. स्वागतिक (राजा को देखते ही स्वागत का उद्घोष करनेवाले)। 2. सौवस्तिक (राजा के प्रति स्वस्तिवाचन करनेवाले)। 3. सौखशयनिक (राजा से सुखपूर्वक निद्रा के विषय में पूछनेवाले)। 4. सौखरात्रिक (राजा से सुखद और शान्त रात्रि के विषय में पूछनेवाले)। 5. सौस्नातिक (स्नानोपरांत अभिवादन करनेवाले)।
चालुक्य काल में अंगरक्षकों के नायक को अंगनिगूहक कहा गया है। राजप्रासाद की व्यवस्था में अधिकारियों और सेवकों का एक विशाल वृन्द एक पृथक् विभाग के अधीन दिन-रात कार्यरत रहता था। राजप्रसाद की पाकशाला पाकाधिप नामक अधिकारी की देखरेख में रहती थी। अन्तःपुर का प्रबन्ध कंचुकी नामक अधिकारी के नियंत्रण में होता था जो एक वृद्ध तथा राजा का सबसे अधिक विश्वासपात्र अधिकारी होता था। कंचुकी के अतिरिक्त किरात, कुब्ज, परिचारिका आदि विभिन्न सेवक-सेविकाएँ-राजप्रासाद विभाग के अधीन कार्यरत रहती थी। राजा एवं राजपरिवार की चिकित्सा आदि के लिए राजवैद्य की नियुक्ति का भी विवरण प्राप्त होता है, जिसे 'आरामाधिप' कहा गया है।
प्राचीन भारतीय राज्यानुशासन में सैन्य-विभाग निःसन्देह सबसे महत्त्वपूर्ण था। शत्रुओं से राज्य की रक्षा हेतु राजाओं के पास अक्षौहिणी सेनाएँ होती थीं। जिनकी व्यवस्था के लिए एक पृथक् सैन्य-विभाग का गठन किया जाता था। प्राचीन भारत में चतुरंगिणी सेनाओं में परम्परागत चार विभाग-गज,