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अनेकान्त-57/3-4
कारण सम्भवतया यह था कि राज्य के प्रायः सभी कार्य इन विभागों के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाते थे और जो राज्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। कौटिल्य ने भी अर्थशास्त्र में अठारह तीर्थों के अतिरिक्त 28 अध्यक्षों के नाम दिये हैं और उनके कार्यो का पृथक् से विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है। अर्थशास्त्र के प्रथम खण्ड के दूसरे अधिकरण का शीर्षक ही 'अध्यक्ष-प्रचार' के नाम से अभिहित है, जिसमें विभिन्न विभाग और उसके मुख्याधिकारियों तथा अधीक्षकों को पृथक्-पृथक नाम दिये गये हैं। रघुवंश में कालिदास द्वारा तीर्थो का इसी अर्थ में प्रयोग किया गया है। कौटिल्य के 'अध्यक्ष-प्रचार' नामक अधिकरण के आधार पर ही प्राचीन भारतीय अभिलेखों में भी विभिन्न अधिकारियों की नियुक्तियों का उल्लेख प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ भोजवर्मदेव के बेलवा-दानपत्र एवं विजयसेन के बैरकपुर-दानपत्र में उल्लेख आया है- 'अन्यांश्च सकलराजपदोपजीविनोऽध्यक्ष-प्रचारोक्तान इहाकीर्तितान् चट्टभटजातीयान् जनपदान् क्षेत्रकरांश्च ।' 10
सुव्यवस्थित-शासन-संचालन हेतु सपरिषद राजा को 'केन्द्रीय सचिवालय' और उनमें कार्यरत कार्यालयाध्यक्षों की अत्यधिक आवश्यकता पड़ती थी। वैदिक काल में लेखन-कला के आविष्कार के अभाव में शासन-कार्यालय के विकास की आशा करना उचित नहीं है, सम्भवतः इस काल में राजा के आदेश मौखिक रूप से अथवा संदेशवाहकों के द्वारा ही घोषित किये जाते थे। कालान्तर में लेखन-कला के विकास तथा शासन-कार्यो के अभिलेखों के रखरखाव के लिए निश्चित रूप से एक कार्यालय की आवश्यकता हुई। मौर्यकाल तक आते-आते शासन-व्यवस्था पूर्णतः संघटित और व्यापक हो चुकी थी। विविध बड़े-बड़े विभाग अर्थात् तीर्थ स्थापित किये जा चुके थे। शासन की श्रेष्ठता बहुत कुछ केन्द्रीय शासन-कार्यालय पर निर्भर मानी जाने लगी थी। कौटिल्य ने कहा है 'शासने शासनमित्याचक्षते' " अर्थात् शासन (सरकारी आदेश) ही सरकार है। शुक्र के अनुसार राजसत्ता राजा के शरीर में नहीं, उसके हस्ताक्षरित और मुद्रांकित शासन में रहती है। मौर्यकाल में केन्द्रीत सचिवालय का प्रधान अधिकारी अक्षपटल नाम से जाना जाता था। गहडवाल और चालक्य राज्य में सरकारी लेखों के प्रधान निरीक्षक जो कभी-कभी