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प्राचीन भारत में राजकीय विभाग
-डॉ. मुकेश बंसल जिस प्रकार शरीर में स्थित ज्ञान केन्द्र को मस्तिष्क के आदेशों को पूरा करने के लिए शरीर के विभिन्न अंगों और इन्द्रियों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार राजा को राजकीय कार्यों के सम्पादन-हेतु शासन-कार्यालय एवं विभिन्न शासकीय विभागों की आवश्यकता होती है। प्राचीन भारतीय राज्यानुशासन के सिद्धानतों से ज्ञात होता है कि कल्याणकारी आदेशों का सामान्य लोक में पालन करना और प्रजा-हित-साधन करना ही राजा का सर्वप्रमुख कर्त्तव्य था, जिसके अभाव में लोक की स्थिति और सुख असम्भव था। प्रजानुरंजन और लोकल्याण में तत्पर राजा को राज्य की सुदृढ़ शासन-व्यवस्था बनाए रखने के लिए विभिन्न राजकीय विभागों और उनमें नियुक्त पदाधिकारियों की आवश्यकता पड़ती थी। इन राजकीय विभागों एवं उनमें नियुक्त पदाधिकारियों को राजा के द्वारा ही प्रायः समस्त अधिकार प्रदान किये जाते थे। समस्त विभागों का अपना-अपना कार्य-क्षेत्र निश्चित था। उस विभाग का अध्यक्ष स्वतंत्र रूप से अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता था, किन्तु वह किसी भी दशा में निरकुंश न हो पाए इसलिए प्रत्येक स्थिति में अंतिम निर्णय राजा का ही होता था। प्राचीन भारतीय साहित्य में शासन को सुव्यवस्थित एवं दृढ़तापूर्वक चलाने हेतु राजा द्वारा जिन विभिन्न राजकीय विभागों की स्थापना के उल्लेख प्राप्त होते हैं, उन्हें 'तीर्थ' कहा गया है।
विभिन्न कालों में विभिन्न विभाग, उनके पदाधिकारी एवं कार्यपालक रहे हैं। वैदिक काल में राजसूय यज्ञ के सम्पादन में कुछ ऐसी आहुतियों का उल्लेख प्राप्त होता है जो 'रनिनां हविषि' ' कही जाती थी। यद्यपि उनके नामों एवं क्रमों में कालान्तर में कुछ हेर-फेर हो गया था, किन्तु फिर भी बहुधा वे सभी ग्रन्थों में उसी रूप में पायी जाती हैं। प्राचीन वैदिक साहित्य में राजा के