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अनेकान्त-57/3-4
लिए सम्भव नहीं था। अतः इसके लिए पृथक् न्याय विभाग की स्थापना आवश्यक थी। इस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था किन्तु कार्य की अधिकता के कारण न्याय वितरण करने के लिए राजा की ओर से प्राड्विवाक अथवा प्रधान न्यायाधीश की नियुक्ति की जाती थी। न्यायाधीशों को प्राचीन भारतीय साहित्य में धर्माध्यक्ष अथवा न्यायकरणिक कहा गया है। न्याय-व्यवस्था को बनाये रखने के लिए विभिन्न न्यायालयों, अधिकरणों, न्यायाधीशों, प्रदेष्टा, लेखक आदि की नियुक्तियों का प्रमाण प्रचुरता से मिलता है। न्याय-व्यवस्था के संबंध में विस्तृत विवेचना इसी अध्याय में अलग से की गयी है।
राज्य में आन्तरिक शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने के लिए आन्तरिक सुरक्षा विभाग की स्थापना की जाती थी। अभिलेखों में इस विभाग के अधिकारियों को चोरोद्धरणिक और दण्डपाशिक नाम से अभिहित किया गया है। इस विभाग के कर्मचारी नगरों में चोरों और अपराधियों को पकड़कर तथा उन्हें दण्ड देने के उद्देश्य से कालपाशिक, दण्डपाशिक अथवा चोरोद्धरणिक नामक पदाधिकारियों के सुपुर्द करते थे।
प्राचीन भारतीय संस्कृत साहित्य में सैद्धान्तिक रूप से स्वीकार किया गया है कि चारों वर्णाश्रमों को अपने-अपने कर्मों और कर्तव्य-भावना में संलग्न किये रखना राजा का परम कर्तव्य है। इसी उद्देश्य की पूर्ति-हेतु राजा द्वारा पृथक् धर्म-विभाग की स्थापना की जाती थी। राजा अपने इस परम दायित्त्व का निर्वाह धार्मिक विषयों के मंत्रालय द्वारा करता था, जो परम्परागत रूढ़ियों के पालन के साथ अपवादी और आकस्मिक परिस्थितियों की भी व्यवस्था करता था। राजा अपने धार्मिक उत्तरदायित्व की पूर्ति 'पुरोहित' अथवा 'पण्डित' नामक पदाधिकारी को माध्यम से करता था, जिसे विभिन्न समय में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा गया है, यथा-धर्माध्यक्ष, धर्ममहामात्य, विनयस्थिति, श्रमणमहामात्र, स्थापक, धर्माकुश आदि । 45 रामायण में इस विभाग के प्रधान अधिकारी को 'धर्मपाल' नाम से अभिहित किया गया है।+6 इस विभाग के अधीन विभिन्न धार्मिक कार्यो के लिए दान आदि देने के लिए एक पृथक्