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अनेकान्त-57/3-4
अत्यधिक बल दिया गया है। रामायण में राज्य की प्रत्येक प्रकार की सम्पन्नता और नैतिकता का मूल 'अर्थ' को ही बतलाया गया है। इसी प्रकार अर्थशास्त्र में भी राजा तथा पुरुषार्थो के विवेचन में 'अर्थ' को ही प्रधान माना गया है।" इन संकेतों से स्पष्ट हो जाता है कि वित्त-विभाग राज्य तथा शासन-तन्त्र का आधार-स्तम्भ था इसी कारण इस विभाग को कभी-कभी सर्वोच्च स्थान भी प्रदान किया गया है। राज्य की समस्त आय-व्यय का निर्धारण वित्त विभाग के अधीन ही होता था। इस विभाग का सर्वोच्च पदाधिकारी स्वयं राजा होता था। राजा ही व्यय के लिए अन्तिम स्वीकृति प्रदान करता था। इस कार्य-हेतु राजा जिन विभिन्न अधिकारियों की नियुक्ति करता था, उन्हें 'व्ययाधिकारी' अथवा 'व्ययकरणमहामात्य' कहा गया है। अर्थशास्त्र में अर्थ-विभाग के अधिकारी को समाहर्ता कहा गया है किन्तु मन्त्रियों की सूची में इसका स्थान बहुत नीचा दर्शाया गया है। 36 शुक्रनीति में वित्त-विभाग के सर्वोच्च पदाधिकारी को 'वित्तधिप' कहा गया है, जिसके अधीन अनेक अधिकारी नियुक्त किये जाते थे। इन अधिकारियों में सबसे महत्त्वपूर्ण कोष्ठागाराध्यक्ष को माना गया है, जिसके अधीन राज्य का सुरक्षित अन्न-भण्डार रहता था। अभिलेखों में इसके लिए भाण्डागाराधिकृत तथा शुक्रनीति में इसे धान्याध्यक्ष कहा गया है। __प्राचीन भारत में अनेक उद्योगों एवं व्यवसायों की विकसित अवस्था की जानकारी प्राप्त होती है जिनकी व्यवस्था एक पृथक् विभाग द्वारा की जाती थी। उद्योगों की व्यवस्था-हेतु प्राचीन भारतीय राज्य बड़े सक्रिय रहते थे। उद्योग राजकीय एवं व्यक्तिगत दोनों ही प्रकार के होते थे। विभाग में इन उद्योगों की व्यवस्था एवं देखरेख हेतु विभिन्न कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती थी। प्राचीन भारत में सबसे प्रमुख और व्यापक उद्योग वस्त्र उद्योग था। वस्त्र उद्योग के लिए सूत्राध्यक्ष नियुक्त किये जाते थे। वस्त्र उद्योग, राजकीय आय वृद्धि एवं राज्य में निर्धन और दुर्बल आय वर्ग के व्यक्तियों के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने हेतु, एक प्रमुख व्यवसाय के रूप में अपनाये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। 38 उद्योग-विभाग के अन्तर्गत विभिन्न अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। इस विभाग के एक अधिकारी को