________________
अनेकान्त-57/3-4
अश्व, रथ और पैदल होते थे और उनके रखरखाव के निमित्त लेखा तथा रसद आपूर्ति के कार्य में संलग्न नागरिक कर्मचारियों का एक बड़ा वर्ग कार्यरत रहता था। सेना-विभाग का सर्वोच्च पदाधिकारी सेनापति होता था, जिसे 'बलाध्यक्ष' कहा गया है। अर्थशास्त्र में सेनापति का स्थान राज्य के अठारह तीर्थाधिकारियों में तीसरा माना गया है और सम्भवतः यह पद सेनामंत्री का था। रामायण महाभारत काल में सेनापति, युद्ध-क्षेत्रों में सेनानायक और शान्ति-समय में मंत्रिपरिषद् का सदस्य होता था। किन्तु बाद के काल में आते-आते सेनापति का कार्य केवल सेना का नायकत्व रह गया, जबकि अन्य कार्य सेना-विभाग के अधीन होते थे। सेना-विभाग के अध्यक्ष के लिए विभिन्न कालों में सेनापति, महासेनापति, महाबलाधिकृत, महाप्रंचडदंडनायक आदि विविध नामों को प्रयुक्त किया गया। सेना के विभिन्न अंगों के पृथक्-पृथक् अध्यक्ष होते थे। पत्त्यध्यक्ष, हस्त्यध्यक्ष, अश्वपति, रथाधिपति आदि। नौसेना-विभाग के अध्यक्ष को नावध्यक्ष कहा जाता था। सैन्य-विभाग द्वारा सैनिकों की गणना आदि के लिए विभाग में एक पुस्तक अथवा सूची बनाए जाने का उल्लेख भी प्राप्त होता है। युद्ध में वीरता प्रदर्शित करनेवाले योद्धाओं को सैनिक सम्मान प्रदान करने, पुस्तक में उनके रणकौशल, वीरकृत्य अंकित करने, वीरों की वेदना के विचारणार्थ उनको समुचित सम्मान आदि प्रदान करने का विवरण भी सैन्य-विभाग द्वारा रखा जाता था। सेना के सम्पूर्ण अंगों के रसद, आयुध, वेष तथा अन्य युद्धोपकरण-संबंधी आपूर्ति का उत्तरदायित्व रणभाण्डाराधिकरण द्वारा किया जाता था।” सैन्य-विभाग में अनेक असैनिक अधिकारी भी विभाग की; आय-व्यय, सैनिकों के वेतन, आवास, भोजन आदि की व्यवस्था में कार्यरत रहते थे। शस्त्रों के निर्माण और संग्रह के लिए आयुधागार अथवा शस्त्रागार होता था जिसके अध्यक्ष के रूप में आयुधागाराध्यक्ष की नियुक्ति का उल्लेख प्राचीन साहित्य में प्राप्त होता है। सेना-विभाग के अधीन ही चिकित्सकों का एक दल भी संगठित किया जाता था, जो युद्ध एवं शान्ति के समय सैनिकों की देखभाल का कार्य करता था। इनके अतिरिक्त गुप्तचर-व्यवस्था, दुर्ग-व्यवस्था आदि भी सैन्य-विभाग के अधीन ही आती थी।