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अनेकान्त-57/3-4
इस प्रकार किया है-मैं श्रुताभ्यास के द्वारा शुभ उपयोग का आश्रय करता हुआ, शुद्ध उपयोग में ही अधिकाधिक स्थिर रहूँ यही मेरी श्रेष्ठ-निष्ठा श्रद्धा है। इस प्रकार अशुभोपयोग से निवृत्ति (त्याग) शास्त्राभ्यास द्वारा शुभोपयोग का आश्रय लेते हुए शुद्धोपयोग में प्रवृत्ति का क्रम निर्देश स्पष्ट है।
उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि पदार्थो के यथार्थ ज्ञानपूर्वक शुद्धात्मा के श्रद्धान-ज्ञान एवं आचरण से अनादि कर्म बंध से मुक्त होकर आत्मा स्वतंत्र होता है।
संदर्भ ग्रंथ सूची 1. तत्वार्थ वार्तिकम् (राजवर्तिकम) : भट्ट अकलंकदेव, दुलीचंद वाकलीवाल, यूनिवर्सल एजेन्सीज
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देहरा-तिजारा, वर्ष-19971 11. जैनतत्व विद्याः मुनिप्रमाण सागर जी, (आचार्य गाधवदि योगीन्द्र विरचित शास्त्रसार समुच्चय)
भारतीय ज्ञानपीठ वर्ष-2000 12. तत्वानुशासन - श्रीनागसेन मुनिः भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद वर्ष-1993 13. योगसार प्राभृतः आचार्य योगीदुदेवः श्री दि. जैन मुमुक्षु मण्डल स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सिवनी,