________________
अनेकान्त-57/3-4
59
ही कहा जाता है । इसी दृष्टि से आचार्य कुन्दकुन्द देव समयसार की अंतिम गाथा (415) में घोषित करते हैं कि 'जो आत्मा इस समयसार को पढ़कर अर्थ और तत्त्व को जानकर उसके अर्थ में स्थित होगा, वह उत्तम सौख्य रूप होगा ।
-pa
स्वाध्याय एवं ध्यान तप ज्ञान का आधार स्वाध्याय है । स्व + अधि + आय = स्वाध्याय अर्थात निज का ज्ञान होना । 'स्वाध्यायः परमं तपः ' स्वाध्याय को परम तप कहा है। सत् साहित्य का पढ़ना - अध्ययन करना, पूछना (तत्वचर्चा), चिंतन-मनन- अनुप्रेक्षा आम्नाम - बारम्बार स्मरण करना और धर्मोपदेश देना आदि स्वाध्याय के ही अंग हैं । एकाग्रचित्त से णमोकार मंत्र का जाप एवं शास्त्र स्वाध्याय यह परम तप है ( तत्वानु. 40 ) ।
'कर्मक्षयार्थं तप्यते इति तपः' कर्म क्षय हेतु जो तपा जाता है, वह तप है । आगमिक दृष्टि से छः बाह्य तप और छः अभ्यंतर तप होते हैं, अध्यात्म दृष्टि से शुद्धोपयोग ही परम तप है । अभ्यंतर तप में स्वाध्याय और ध्यान तप महत्वपूर्ण हैं। स्वाध्याय और ध्यान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ज्ञान व्यग्र होता है और ध्यान एकाग्र । आचार्य अमितगति के अनुसार ध्यानं विनिर्मल ज्ञान पुसां संपद्यते स्थिरम - अर्थात जब निर्मलज्ञान स्थिर हो जाता हो तब वह ध्यान हो जाता है (योगसार प्रा. 9 / 15 ) । ' एकाग्रचिंतानिरोधोध्यानम्' - एक पदार्थ को जानते हुए चिंतवन रूक जाना (ज्ञान में ठहर जाना) ही ध्यान है आचार्य रामसिंह के अनुसार स्थिर मन और स्थिर तात्विक श्रुत ज्ञान का नाम भी ध्यान है ( तत्त्वानु. 68 ) । दोहा पाहुड का यह कथन भी महत्वपूर्ण है - जिस प्रकार नमक जल में विलीन हो जाता है उसी प्रकार चित्त शुद्धात्मा में विलीन हो जाये तब जीव समरस रूप समाधिमय हो जाता है ( गा. 207 ) ।
1
चार प्रकार के ध्यानों में आर्त्त और रौद्र ध्यान अशुभोपयोगी हैं जबकि धर्म ध्यान मुख्यतः शुभोपयोगी है और गौण रूप से शुद्धोपयोगी है। शुक्ल ध्यान के प्रथम दो ध्यान अर्थात पृथक्त्वविर्तक वीचार और एकत्व वितर्क अवीचार श्रुत ज्ञान के विषय के सम्बन्ध में श्रुत के आश्रय से होते हैं जिससे चार द्यातिया कर्म नष्ट होते हैं। अंत के दो ध्यान अर्थात् सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती और व्यपुरतक्रिया निवर्ति, जिनेन्द्र देव के सब प्रकार के अवलम्बन से रहित हैं ।