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अनेकान्त-57/3-4
अपना स्थान है जो उपेक्षणीय नहीं है। जीव के विशुद्ध परिणामों से पुण्य बंध और संक्लेष परिणामों से पाप-बंध होता है। शुद्ध भाव अबंधरूप है।
आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार की टीका में जीवो नाम पदार्थः स समयः' अर्थात् ऐसा जीव नामक पदार्थ समय है कहा है। इस प्रकार समय में सभी पदार्थ आ जाते हैं जो द्रव्य रूप हैं। ‘अथोऽभिधेयः पद स्यार्थः पदार्थः' - अर्थात् अर्थ (अभिधेय) और पद से पदार्थ बना है। संसार में जितने भी पदार्थ हैं वे किसी-न-किसी पद-शब्द के वाच्य अर्थ अवश्य हैं। इस दृष्टि से पदार्थ दो प्रकार का भी है-शब्द ब्रह्म और अर्थ ब्रह्म। न्याय सूत्र के अनुसार व्यक्ति, आकृति और जाति से सब मिलकर पद का अर्थ अर्थात् पदार्थ होते हैं (न्याय दर्शन सूत्र 2/2/63/142)। पदार्थ शब्दार्थ की प्रधान दृष्टि से पदार्थ कहलाते हैं। मोक्ष मार्ग में पदार्थों के यथार्थ ज्ञान की उपयोगिता :- नव पदार्थो के बीच छिपी हई ज्ञान ज्योति पदार्थों के यथार्थ ज्ञान से ही प्रकाशमान होती है। नव तत्त्वों/पदार्थो में एकमात्र शुद्ध जीव तत्त्व ही प्रकाशमान है। जब वह शुद्ध जीवास्तिकाय ज्ञान का ज्ञेय, श्रद्धान का श्रद्धेय और ध्यान का ध्येय बनता है अर्थात् आत्मा का अनुभव होता है, आत्मानुभूति होती है तब सभी द्वैत का अभाव होकर एक आत्मा ही प्रकाशमान होता है। इस सम्बन्ध में समयसार की गाथा 13 मननीय है
भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्ण पांव च आसव संवर णिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तं (स. सार. 13)
भूतार्थ से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रय संवर निर्जरा बंध और मोक्ष- ये नव तत्व ही सम्यग्दर्शन हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार की ग्यारहवीं गाथा में शुद्ध नय को भूतार्थ और व्यवहारनय को अभूतार्थ कहा है। जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है वह जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि होता है। नय व प्रमाण के विकल्प पूर्वक जीवादि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान है (स. वा. 1/1/2/4/3)।