________________
56
अनेकान्त-57/3-4
होता (समयसार कलश 150 ) । इस प्रकार ज्ञानी आत्म जागरूकता पूर्वक शुद्धात्मा का आश्रय करता हुआ कर्मों की एकदेश निर्जरा करता है । भोग के प्रति आंकाक्षा - राग और वियोग बुद्धि पूर्वक भोग के मध्य सूक्ष्म भेद-रेखा तत्वज्ञानी आत्मानुभवी आत्मा ही खींच सकती है । ज्ञानी - अज्ञानी की बाह्य प्रवृत्ति एक जैसी दिखाई देते हुए अभिप्राय में आकाश-पाताल जैसा अंतर होता है ।
सातवां महत्वपूर्ण तत्व मोक्ष तत्व है । बंधहेत्वाभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः (सूत्र 10 / 2 ) । बंध के हेतुओं का अभाव संवर और निर्जरा द्वारा सम्पूर्ण कर्मो का क्षय हो जाना मोक्ष है। अध्यात्म दृष्टि से जीव स्वयं बंध के स्वभाव और आत्मा के स्वभाव को जानकर रागदिक बंधों के प्रति विरक्त होता है, तभी कर्मों से मुक्त होता है ( स. सार गा. 293 ) । आत्मा और रागादिक भाव चेत्य- चेतक भाव के कारण एक जैसे दिखाई देते हैं । ज्ञानी प्रज्ञा छैनी से दोनों को पृथक कर शुद्धात्मा को ग्रहण करता है और शेष विभाव भावों को छोड़ता है । इस प्रकार आत्मा ही आत्मा द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा में से, आत्मा में आत्मा को ग्रहण करता है। इस कारण आत्मा स्वयंभू है ।
सात तत्वों में जीव उपादेय, अजीव ज्ञेय, आश्रव-बंध हेय, संवर निर्जरा एकदेश उपादेय और मोक्ष सर्वकर्म के अभाव रूप परम उपादेय है । यह तत्व जैन धर्म/दर्शन में वर्णित आत्मा की अशुद्धता से शुद्ध होने की प्रक्रिया के मील - पत्थर रूप दिशा - बोधक एवं प्राण रूप हैं।
नव पदार्थाः पदार्थ नौ हैं। उक्त सात तत्वों में पुण्य और पाप सम्मलित कर देने से सात तत्व नौ पदार्थ हो जाते हैं । यद्यपि पुण्य-पाप भाव आनव तत्व में सम्मलित हैं, फिर भी स्वर्ण और लोहे की बेडियों में स्वर्णत्व के प्रति बहुभाव न हो जावें, अतः आचार्यों ने दोनो ( पुण्य-पाप) को कुशील रूप शुभ-अशुभ कर्मबंध का कारण माना है ( स. सा. गा. 146 ) । और उनसे राग या संसर्ग न करने हेतु उपदेश दिया है। पुण्य-पाप भाव जीव के अशुद्ध परिणाम हैं जो शुद्ध परिणामों के बाधक-विरोधी हैं । शुद्ध भाव बिना मुक्ति नहीं और अशुद्ध भाव बिना कर्म बंध नहीं । अतः दृष्टि में दोनों भाव हेय हैं। यद्यपि मोक्ष मार्ग में जिनेन्द्र देव की पूजा - भक्ति आदि के प्रशस्त राग रूप विशुद्ध परिणामों का
-