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अनेकान्त-57/3-4
इस भ्रान्त धारणा के प्रचलित होने से लोगों ने विदेह के सीमंधर तक की मूर्ति यहाँ स्थापित कर दीं। वास्तविकता तो यह है कि कुन्दकुन्द का गुणगान करके कुछ छद्म लोग अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए कुन्दकुन्द के दिगम्बरत्व पोषक सिद्धान्तों का प्रच्छन्न विरोध ही करते रहे हैं। जबकि कुन्दकुन्दाचार्य ने“परमाणुमित्तयं पि रागादीणं तु विज्जदे जस्स । ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरोवि । ।" "चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्तिणिदिट्ठो । मोहक्खोह विहीणी परिणामो अप्पणो ह समो । । "
जैसी गाथाओं द्वारा रागादि के किञ्चित् मात्र भी होने पर आत्मज्ञान होने का सर्वथा निषेध किया है । तब भी ये कुन्दकुन्द के गुणगान का स्वाँग भरने वाले स्वार्थ सिद्धि के लिये गृहस्थ अवस्था में ही आत्मानुभूति की चर्चा करने लगे हैं; जो कुन्दकुन्द के दिगम्बरत्व सम्बन्धी सिद्धान्तों के सर्वथा विपरीत है ।
आगम में मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन पाँच ज्ञानों का उपदेश है तथा यह भी उपदेश है कि इनमें से चार ज्ञान रूपी पदार्थो को जानते हैं अरूपी आत्मा को मात्र केवलज्ञान ही जानता है ।
कहा गया है - ' रूपिष्ववधेः' 'तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य' 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' । ऐसे में छद्मस्थों को आत्मानुभव की बात करना आगम और पाठकों को धोखा देना और दिगम्बरत्व के विरुद्ध प्रचारमात्र है । इससे तो लगता है कि यह दिगम्बरों को नष्ट करने का सुनियोचित षड्यंत्र मात्र ही है। क्योंकि उन्हें तो परिग्रही को मुक्ति इष्ट है न कि कुन्दकुन्द के सिद्धान्त दिगम्बरत्व से ।
यह मान्यता भी भ्रामक है कि व्यवहार नय सर्वथा मिथ्या होता है और निश्चय नय सम्यक् होता है तथा निश्चय नय को ग्रहण और व्यवहार नय को छोड़ना चाहिए । जबकि निश्चय नय से ग्रहीत पदार्थ का अनुभव केवली के सिवाय अन्य नहीं कर सकता । तथाहि
सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरसिहिं ।
ववहारदेसिदो पुण जे दु अपरमे ठिदा भावे ।। - ( समयसार - 14 )