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अनेकान्त-57/3-4
हुए साधुओं-आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठियों की उपास्यता का कथन किया है। उन्होंने यथायोग्य पञ्चपरमेष्ठियों की उपास्यता का वर्णन करते हुए लिखा है
भजनीया इमे सदिः सम्यक्त्वगुणसिद्धये।
स्नानपूजनसद्ध्यानजपस्तोत्रसदुत्सवैः।। 98 अर्थात् इनकी अभिषेक, पूजन, ध्यान, जप, स्तुति एवं महोत्सवों के द्वारा उपासना करना चाहिए। इनकी उपासना से सज्जनों को सम्यक्त्व गुण की सिद्धि होती है।
उमास्वामिश्रावकाचार में कहा गया है कि श्रावकों को मनोवांछित कार्य की सिद्धि के लिए, इस लोक में संशय रूप अंधकार के नाश के लिए और परलोक में सुख पाने के लिए गुरुओं की उपासना करना चाहिए। संसार में जितने भी उत्तम, मध्यम और जघन्य मनुष्य हैं, वे गुरु के बिना नही रहते हैं। अतः श्रावक को गुरु की उपासना करना ही चाहिए। मनुष्य सदा ही शुभाशुभ कर्म करते रहते हैं। वे गुरु के द्वारा उपदिष्ट आचार से शुद्ध होकर महान् बन जाते
हैं। 39
___ श्री पद्मनन्दि मुनि ने मुनियों के सकल सम्यक्चारित्र को पापों का विध्वंशक बताकर चारित्र और चारित्रधारियों की उपासना का संकेत किया है। श्री शिवकोटि ने तो स्पष्ट रूप से लिखा है कि कलिकाल में श्रेष्ठ मुनियों द्वारा वनवास छोड़ा जा रहा है, वे जिनालय में या ग्रामादिक में रहने लगे हैं, फिर भी उनकी चतुर्विध दानादिक से उपासना करना चाहिए। जिस पुरुष ने आज के वर्तमान काल में हर्षपूर्वक साधुओं की वैयावृत्ति की है, उसने ही सुख के कारणभूत जैन शासन का उद्धार किया है।"
पद्मनन्दिपञ्चविंशातिका में कहा गया है कि भव्य जीवों को प्रातःकाल उठकर जिन भगवान् और गुरुजनों का दर्शन करना चाहिए, भक्ति से उनकी वन्दना करना चाहिए तथा धर्म का उपदेश सुनना चाहिए। इसके बाद ही उपासक गृहस्थों को सांसारिक कार्य करना चाहिए। गुरु की कृपा से ही