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अनेकान्त-57/3-4
नहीं होता।
षड् द्रव्यों की अनंत स्वतंत्रता की उद्घोषणा जिनेन्द्र देव के मत में ही सम्मत है। द्रव्य गुण और पर्यायों की कथंचित स्वतंत्रता की स्वीकृति एवं तदनुसार अरहंत भगवान समान अपने स्वरूप की श्रद्धा-अनुभव.से मोक्ष मार्ग प्रगट हो जाता है। इससे हृदय में समता भाव की किरणें फूट पडतीं हैं और सभी जीव-अजीव के प्रति वात्सल्यमयी भावना उद्भूत होती हैं जो धार्मिकता, जीवदया और करुणा का स्रोत है। सत् स्वरूप की स्वीकृति-प्रतिष्ठा सत्यधर्म के सौन्दर्य का बोध कराता है। इससे ही मैत्री, प्रमोद, करूणा और माध्यस्थ भाव उद्भूत होता है। सत् शब्द के भावबोध से ही जीवन का रूपांतरण विभाव से स्वभाव की ओर शक्य है। जिनोपादिष्ट छः द्रव्यों के कथन का उद्देश्य निज द्रव्य को जानना है। (नयचक्र 284) सप्त तत्वानि – तत्व सात हैं। जीवाजीवासवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् (सूत्र 1/4)। जीव, अजीव, आसव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। सात तत्वों में जीव और अजीव स्वतंत्र द्रव्यरूप धर्मी हैं। इनमें छः द्रव्य समाहित हैं। शेष पांच तत्व अर्थात आम्रव बंध, संवर निर्जरा और मोक्ष ये जीव-अजीव के विभाव-स्वभाव पर्याय रूप धर्म हैं।
तत्व भाव परक संज्ञा है। प्रयोजनभूत अर्थात् शुद्धात्मा के भाव को तत्व कहते हैं। 'तद् भावस्तत्वम्'-आचार्य पूज्यपाद के अनुसार जिस वस्तु का जो भाव है वह तत्व है। भट्टाकलंक देव के अनुसार 'स्व तत्त्वं स्वतत्त्वं, स्वभावोंऽसाधारणो धर्मः'-अपना तत्त्व स्व तत्व होता है, स्वभाव असाधारण धर्म को कहते हैं अर्थात वस्तु के असाधारण रूप स्व तत्त्व को तत्व कहते हैं। तत्व शब्द 'तत्' और 'त्व' के योग से बना है। तत् = 'तह' और त्व = भाव या पना। वस्तु का भाव ही तत्व है जैसे-जल का शीलत्व, अग्नि का अग्नित्व, आत्मा का ज्ञायकत्व ओर पुद्गल का रूपत्व। श्रुत ज्ञान एवं अविपरीत अर्थ के विषय को भी तत्त्व कहा है। आत्म तत्त्व अर्थात् आत्मा का स्वरूप। परमार्थ, तत्व, द्रव्य स्वभाव, परम, परमपरम, ध्येय और शुद्ध ये सब एकार्थवाची हैं।