________________
18
अनेकान्त-57/3-4
परंपरा परवर्ती आचार्यों ने विकसित की। मल्लवादी आचार्य सिद्धसेन से प्रभावित होते हुए भी नैगम नय को पांचवें और छठे आरे में गर्भित करते हैं जबकि सिद्धसेन ने नैगम नय को छोड़कर मात्र षड्नय ही स्वीकृत किये है। आगमिक परंपरा से प्राप्त नैगम नय को पुनः स्थापित करने का भी श्रेय इस दृष्टि से मल्लवादी को जाता है। यहां एक बात और भी विचारणीय है कि मल्लवादी ने व्यवहार नय को प्रथम लिया और नैगम नय को संग्रह के बाद तीसरे स्थान पर रखा।
इस लघु विमर्श के बाद हम यह कह सकते हैं कि मल्लवादी जैनदर्शन के क्षेत्र में एक ऐसे दार्शनिक हुए हैं जिन्होंने नयों के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान दिया और परवर्ती किन्हीं आचार्यों ने उनकी इस विधि को नहीं अपनाया।
सन्दर्भ
1. (क) द्वादशार नयचक्रम्, तृतीयोविभागः, संपादक-मुनिजम्बूविजयस्य प्राक्कथनम्, पृष्ठसंख्या-7
प्रकाशक-जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, प्रथमावृत्ति-1988 (ख) आगमयुग का जैन दर्शन, परिशिष्ट-2 आचार्य मल्लवादी का नयचक्र-दलसुख भाई
मालवणिया, पृ. 297 2. तुलनीय, आगमयुग का जैनदर्शन, दलसुख मालवणिया, पृ. 307-308 3. तयोर्भगा-(1) विधिः, (2) विधिविधिः, (3) विधेर्विध-नियमः, (4) विधेर्नियमः, (5) विधि
-नियमम्, (6) विधि-नियमस्य विधिः, (7) विधि-नियमस्य विधिनियमस्, (8) विधिनियमस्यनियमः, (9) नियमः, (10) नियमस्य विधिः, (11) नियमस्य विधिनियमम्, (12) नियमस्य नियमः । -द्वादशार नयचक्रम् प्रथमोविभागः, प्रथमेविध्यरे, पृ. 10 संपादक-मुनि जम्बूविजयः, प्रकाशक-जैन आत्मानंदसभा, भावनगर, प्रथमावृत्ति 1966 विध्यादयः षड्नया द्रव्यार्थिकस्य भेदाः, उभयोभयादयश्च षड्नयाः पर्यायार्थिकस्य भेदाः। एवं नैगमादिष्वपि नयेषु यथा विध्यादयो नया अन्तर्भवन्ति तथा तत्तद्विध्यादिनयनिरूपणान्ते विस्तरेण वर्णितं मल्लवादिसूरिभिः । दिनां व त्ववोपदशयति-प्रथमस्य विधिनयस्य व्यवहारनये, द्वितीयचतुर्थाना संग्रह-नये, पंचमषष्ठयोनॆग्मे, सप्तमस्य ऋजुसूत्रनये, अष्टमनवमपोंः शब्दनये, दशमस्य समभिरूढ़े,
एकादशद्वादशेयोस्तु एवम्भूतनयेऽन्तर्भावः। । 5. -वही, प्राक्कथनम् -मुनिजम्बु विजयः, पृ. 18 विध्यादिनयनिरूपणव्याजे न
तत्तन्नयानुसारिणस्तत्कालीनाः सर्वे पि दार्शनिकविचारा मल्लवादिसूरिभिरत्रोपन्यस्ताः । -द्वादशारनयचक्र भाग-1, प्राक्कथनम, पृ. 18