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अनेकान्त-57/3-4
मुखकमल में सरस्वती विराजमान है; ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी हमें और आपको पवित्र करें। आगे पुनः उपाध्याय परमेष्ठी का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जैसे उन्नत पर्वतों से पावन नदियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार जिन विद्योन्नत सत्त्वशाली उपाध्यायों से पापों का दलन करने वाली पवित्र विद्यायें उत्पन्न होती हैं, जो संसार-कानन को जलाने के लिए दावानल के समान पञ्च आचारों का स्वयं पालन करते हैं, जो द्वादशांग रूप श्रुतस्कन्ध को स्वयं पढ़ते हैं और अन्य शिष्यों को पढ़ाते हैं, जिनके वचन रूप सरोवर में स्नान करने वाले मलिन पुरुष भी मलिन नही रहते, प्रत्युत निर्मल हो जाते हैं, ऐसे पापरहित उपाध्याय परमेष्ठी चतुर पुरुषों के द्वारा अवश्य ही पूजे जाते हैं। साधु :- श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतरागी, अनगार, भदन्त और दान्त ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। रत्नकरण्डश्रावकाचार में विषयों की आशा से रहित, निरारंभ, अपरिग्रही तथा ज्ञान, ध्यान और तप (किंवा ज्ञानतप और ध्यानतप) में लीन को तपस्वी या साधु कहा गया है। तत्त्वार्थसार में व्यवहारालंवी साधु का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि जो सात तत्त्वों का भेदपूर्वक श्रद्धान करता है, भेदरूप से जानता है तथा विकल्पात्मक भेद रूप रत्नत्रय की साधना करता है, वह व्यवहारी साधु है। 20 अमितगतिश्रावकाचार में साधु परमेष्ठी की वन्दना करते हुए कहा है
कषायसेनां प्रतिबन्धिनीं ये निहत्य धीराः शमशीलशस्त्रैः। सिद्धिं विबाधां लघु साधयन्ते ते साधवो मे वितरन्तु सिद्धिम् ।।
अर्थात जो धीर वीर सिद्धि को रोकने वाली क्रोध आदि कषाय रूपी सेना को शम और शील रूप शस्त्रों के द्वारा विनष्ट कर बाधा रहित सिद्धि को अल्पकाल में शीघ्र ही सिद्ध कर लेते हैं, वे साधुजन मुझे सिद्धि प्रदान करें। आगे पुनः कहा गया है कि जिन्होंने तीनों लोकों को सन्तापित करने वाली तीव्र कामाग्नि को पापपंक के प्रक्षालक शमभाव रूपी जल से बुझा दिया है, जो भवकानन को जलाने की इच्छा से निर्दोष तप को करते हैं, जिन्होंने सर्व प्रकार के परिग्रह को दूर कर दिया है, जो अपने शरीर के प्रति भी निष्पह हैं, जो खजाने की तरह रत्नत्रय की अत्यन्त आदरपूर्वक रक्षा करते हैं, ऐसे