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अनेकान्त-57/3-4
"जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामि-दिव्वणाणेण।
ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणति।।" -(दर्शनसार-43) के गलत अर्थ को प्रामाणिक मानकर पद्मनन्दि आचार्य को सीमंधर स्वामी (विदेह के तीर्थंकर) के समीप जाने की मिथ्या कल्पना भी कर ली। जबकि उक्त गाथा से यही स्पष्ट होता है कि पद्मनन्दि आचार्य ही सीमंधर विशेषण से युक्त थे और उन्हीं ने दिव्यज्ञान के द्वारा मुनियों को सम्बोधित किया था न कि विदेह के तीर्थंकर सीमंधर स्वामी ने पद्मनन्दि आचार्य और अन्य श्रमणों को। गाथा के अन्वयार्थ से भी यही स्पष्ट होता हैअन्वय- जइ सीमंधर सामि पउमणंदि णाहो दिव्वणाणेण
ण 'विवोहइ' तो समणा सुमग्गं कहं पयाणंति। स्पष्ट है कि उक्त गाथा में सीमंधर स्वामी विदेह के तीर्थंकर नहीं अपितु पद्मनन्दि आचार्य स्वयं सीमंधर हैं क्योंकि उन्हीं ने ऐसे कठिन समय में जबकि श्वेताम्बरों ने धर्म की सीमाओं का उल्लंघन कर दिया था तब दिगम्बर धर्म की रक्षा के लिए आगमानुसार दिगम्बरत्व की सीमाओं का अवधारण किया और कराया-“सीमां मर्यादां पूर्वपुरुषकृतां धारयति। न आत्मना विलोपयति यः सः तथा। कृतमर्यादापालके।"
-(अभिधान राजेन्द्र) अतः गाथा में सीमंधर स्वामी पद्मनन्दि का विशेषण है, न कि विदेह के तीर्थंकर सीमंधर के प्रसंग में।
यदि विदेह के तीर्थंकर सीमंधर स्वामी के पास कुन्दकुन्दाचार्य का जाना हुआ होता और उनसे उपदेश प्राप्त हुआ होता तो गाथा में क्रिया का रूप कर्मवाच्य होने के कारण 'विवोहिअ' होता न कि कर्तृवाच्य का रूप 'विवोहइ । जबकि उपर्युक्त गाथा में कर्तृवाच्य के रूप का प्रयोग किया गया है, जिससे स्पष्ट है कि इसका प्रयोग पद्मनन्दि आचार्य के लिए ही किया गया है न कि विदेह के तीर्थंकर सीमंधर स्वामी के लिये। यदि पद्मनन्दि आचार्य विदेह के तीर्थंकर सीमंधर स्वामी से उपदिष्ट होते तो गाथा में कर्मवाच्य 'विवोहिअ' का प्रयोग किया गया होता न कि कर्तृवाच्य के रूप विवोहइ का।
विदेह के तीर्थंकर सीमंधर स्वामी से कुन्दकुन्दाचार्य ने उपदेश ग्रहण किया