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अनेकान्त-57/1-2
को भाष्यरूप में प्रदर्शित करने की दृष्टि से हुई जान पड़ती है। परन्तु आम जैन-जनता सुने-सुनाये आधार पर इन्हें मूल एवं स्वतंत्र ग्रंथों के रूप में ही मानती आ रही है। अपने स्वरूप से मूल-ग्रंथ न होकर टीका-ग्रंथ होते हुए भी, ये अपने साथ में उन मूल सूत्रग्रन्थों को लिये हुए हैं जिनके आधार पर इनकी यह इतनी बड़ी तथा भव्य इमारत खड़ी हुई है। सिद्धिविनिश्चय-टीका तथा कुछ चूर्णियों आदि की तरह ये प्रायः सूत्रों के संकेत-मात्र को लिये हुए नहीं हैं; बल्कि मूल सूत्रों को पूर्ण रूप से अपने में समाविष्ट तथा उद्धृत किये हुए हैं, और इसलिये इनकी प्रतिष्ठा मूल सिद्धान्तग्रन्थों जैसी ही है और ये प्रायः स्वतन्त्र रूप में 'सिद्धान्तग्रन्थ' समझे तथा उल्लेखित किये जाते हैं।
धवल-जयधवल की आधारशिलाएँ जयधवल की 60 हजार श्लोकपरिमाण निर्माण को लिये भव्य इमारत जिस आधारशिला पर खड़ी है उसका नाम 'कसायपाहुड' (कषायप्राभृत) है। और धवल की 70 हजार या 72 हजार श्लोक परिमाण-निर्माण को लिये हुए भव्य इमारत जिस मूलाधार पर खड़ी हुई है वह 'षट्खण्डागम' है। षट्खण्डागम के प्रथम चार खंडों- 1. जीवस्थान, 2. क्षुल्लकबन्ध, 3. बन्ध-स्वामित्वविचय और 4. वेदाना, जिसे 'वेयणकसीण-पाहुड' तथा 'कम्मपयडिपाहुड' (कर्मप्रकृतिप्राभृत) भी कहते हैं, यह पूरी टीका है-इन चार खण्डों का इसमें पूर्ण रूप से समावेश है और इसलिये इन्हें ही प्रधानतः इस ग्रन्थ ही आधार-शिला कहना चाहिये। शेष 'वर्गणा' और 'महाबन्ध' नाम के दो खण्डों की इसमें कोई टीका नहीं है
और न मूल सूत्र रूप में ही उन खण्डों का संग्रह किया गया है- उनके किसी-किसी अंश का ही कहीं-कहीं पर समावेश जान पड़ता है।
वर्गणाखण्ड-विचार धवल ग्रन्थ में 'बन्धस्वामित्वविचय' नाम के तीसरे खण्ड की समाप्ति के अनन्तर मंगलाचरणपूर्वक 'वेदना' खण्ड का प्रारम्भ करते हुए, 'कम्मपयडिपाहुड' इस द्वितीय नाम के साथ उसके 24 अनुयोगद्वारों की सूचना करके उन अनुयोगद्वारों के कदि, वेयणा, फास, कम्म, पयडि, बंधण, इत्यादि 24 नाम दिये हैं और फिर उन अनुयोगद्वारों (अधिकारों) का क्रमशः उनके अवान्तर