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अनेकान्त-57/1-2
यह ग्रंथप्रति मूडबिद्री से आई है उसमें शीघ्रतादि के वश वर्गणाखण्ड की कापी न हो सकी हो और अधूरी ग्रन्थप्रति पर यथेष्ठ पुरस्कार न मिल सकने की आशा से लेखक ने ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति को 'वेदनाखण्ड' के बाद जोड़कर ग्रंथप्रति को पूरा प्रकट किया हो, जिसकी आशा बहुत ही कम है। कुछ भी हो, उपलब्ध प्रति के साथ में वर्गणाखण्ड नहीं है और वह चार खण्डों की ही टीका है, इतना तो स्पष्ट ही है। शेष का निर्णय मूडबिद्री की मूल प्रति को देखने से ही हो सकता है। आशा है पं. लोकनाथ जी शास्त्री उसे देखकर इस विषय पर यथेष्ट प्रकाश डालने की कृपा करेंगे यह स्पष्ट लिखने का जरूर कष्ट उठाएँगे कि वेदनाखण्ड अथवा कम्मपयडिपाहड के 24वें अधिकार की समाप्ति के बाद ही- “एवं चउवीसदि-मणिओगद्दारं समत्तं" इत्यादि समाप्तिसूचक वाक्यों के अनन्तर ही-उसमें 'जस्स सेसाण्णमए' नाम की प्रशस्ति लगी हुई है या कि उसके बाद 'वर्गणाखण्ड' की टीका देकर फिर वह प्रशस्ति दी गई है। ___ हॉ, सोनीजी ने यह नहीं बतलाया कि वह सूत्र कौनसा है जिसके अवशिष्ट अर्थ को 'वर्गणा' में कथन करने की प्रतिज्ञा की गई है और वह किस स्थान पर कौन सी वर्गणाप्ररूपण में स्पष्ट किया गया है? उसे जरूर बतलाना चाहिये था। उससे प्रकृत विषय के विचार को काफी मदद मिलती और वह बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता। अस्तु। ___ यहाँ तक के इस संपूर्ण विवेचन पर से और ग्रंथ की अंतरंग साक्षी पर से मैं समझता हूँ, यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि उपलब्ध धवला टीका षट्खण्डागम के प्रथम चार खण्डों की टीका है, पाँचवें वर्गणा खण्ड की टीका उसमें शामिल नहीं है और अकेला 'वेदना' अनुयोगद्वार ही वेदनाखण्ड नहीं है बल्कि उसमें दूसरे अनुयोगद्वार भी शामिल हैं। ___ इन्द्रनन्दी और विबुध श्रीधर के श्रुतावतारों की बहिरंग साक्षीपर से भी कुछ विद्वानों को भ्रम हुआ जान पड़ता है; क्योंकि इन्द्रनन्दी ने "इतिषण्णाँ खण्डानां...टीकां विलिख्य धवलाख्याम्" इस वाक्य के द्वारा धवला को छह खण्डों की टीका बतला दिया है! और विबुध श्रीधर ने 'पंचखंडे षट्खंड संकल्प्य' जैसे वाक्य के द्वारा धवला में पाँच खण्डों का होना सूचित किया है।