________________
अनेकान्त-57/1-2
127
जयधवला मे भी उसे ध्रुवसेन नाम से उल्लेखित किया है-पूर्ववर्ती ग्रथ 'तिलोयपणयत्ती' में भी ध्रुवसेन नाम का उल्लेख मिलता है। इससे यही नाम ठीक जान पड़ता है अथवा द्रुमसेन को
इसका नामान्तर समझना चाहिये। इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार मे द्रुमसेन नाम से ही उल्लेख किया है। 13 अनेक पट्टावलियो मे यशोबाहु को भद्रबाहु (द्वितीय) सूचित किया है और इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार
मे 'जयबाहु' नाम दिया है तथा यशोभद्र की जगह अभयभद्र नाम का उल्लेख किया है। 14 इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार मे इन आचार्यो को शेष अगों तथा पूर्वो के एकदेश धारी नही लिखा, न
धर्मसेनादि को चौदह पूर्वो के एकदेश-धारी लिखा और न विशाखाचार्यादि को शेष चार पूर्वो के एकदेशधारी ही बतलाया है। इसलिये धवला के ये उल्लेख खास विशेषता को लिए हुए हैं
और बुद्धि ग्राह्य तथा समुचित मालूम होते है। 15. 'महिमानगड' नामक एक गाव सतारा जिले मे हैं (देखो, 'स्थलनामकोश'), संभवत यह वही
जान पडता है। 16 इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार के निम्न वाक्य से यह कथन स्पष्ट नही होता-वह कुछ गड़बड को लिये
हुये जान पडता है :"देशेन्द्र (ऽन्ध्र) देशनामनि वेणाकलटीपुरे महामहिमा। समुदित मुनीन् प्रति..." इसमे ‘महामहिमासमुदितमुनीन्' लिखा है तो आगे, लेखपत्र के अर्थ का उल्लेख करते हुए, उसमें 'वेणाकतटसमुदितयतीन्' विशेषण दिया है जो कि 'महिमा' और 'वेण्यातट' के वाच्यों
को ठीक रूप में न समझने का परिणाम हो सकता है। 17 'वेण्या' नाम की एक नदी सतारा जिले में है (देखो ‘स्थलाम कोश')। संभवतः यह उसी के
तट पर बस हुआ नगर जान पड़ता है। 18 इन्द्रनन्दिश्रुतावतार मे 'जयतु-श्रीदेवता' लिखा है, जो कुछ ठीक मालूम नही होता, क्योंकि
प्रसग श्रुतदेवता का है। 19. इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में तीन दिन के विश्राम का उल्लेख है। 20. इन गाथाओं का संक्षिप्त आशय यह है कि 'जो आचार्य गौरवादिक के वशवर्ती हुआ मोह से
ऐसे श्रोताओं को श्रुत का व्याख्यान करना है जो शैलघन, भग्न घट, सर्प, छलनी, महिष, मेष, जोंक, शुक, मिट्टी और मशक के समान है-इन जैसी प्रकृति को लिये हुए हैं
वह मूढ़ बोधिलाभ से भ्रष्ट होकर चिरकाल तक ससार वन मे परिभ्रमण करता है।' 21 इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में 'सुपरीक्षा हुन्निवर्तिकरीति, इत्यादि वाक्य के द्वारा परीक्षा की यही बात
सूचित की है, परन्तु इससे पूर्ववर्ती चिन्तनादि-विषयक कथन, जो इस पर 'धरसेन' से प्रारम्भ
होता है, उसमें नहीं है। 22. इन्द्रनदिन्द-श्रुतावतार में उक्त मुनियो का यह नामकरण धरसेनाचार्य के द्वारा न होकर भूतों
द्वारा किया गया, ऐसा उल्लेख है।