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अनेकान्त-57/1-2
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यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि वेदनाखण्ड के मूल 24 अनुयोगद्वारों के साथ ही धवला टीका समाप्त हो जाती है, जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, और फिर उसमें वर्गणाखण्ड तथा उसकी टीका के लिये कोई स्थान नहीं रहता। उक्त 24 अनुयोगद्वारों में 'वर्गणा' नाम का कोई अनुयोगद्वार भी नहीं है। 'बंधण' अनुयोगद्वार के चार भेदों में 'बंधणिज्ज' भेद का वर्णन करते हुए, उसके अवान्तर भेदों में विषय को स्पष्ट करने के लिये ' संक्षेप में 'वर्गणा-प्ररूपणा' दी गई है- वर्गणा के 16 अधिकारों का उल्लेख करके भी दो ही अधिकारों का वर्णन किया है। और भी बहुत कुछ संक्षिप्तता से काम लिया है, जिससे उसे वर्गणाखण्ड नहीं कहा जा सकता और न कहीं वर्गणाखण्ड लिखा ही है। इसी संक्षेप-प्ररूपण-हेत को लेकर अन्यत्र कदि, फास और कम्म आदि अनुयोगद्वारों के खण्डग्रन्थ होने का निषेध किया गया है। तब अवान्तर अनुयोगद्वारों के भी अवान्तर भेदान्तर्गत इस संक्षिप्त वर्गणाप्ररूपण को 'वर्गणाखण्ड' कैसे कहा जा सकता है?
ऐसी हालत में सोनी जी जैसे विद्वानों का उक्त कथन कहाँ तक ठीक है, इसे विज्ञ पाठक इतने परसे ही स्वयं समझ सकते हैं, फिर भी साधारण पाठकों के ध्यान में यह विषय और अच्छी तरह से आ जाए, इसलिये मैं इसे यहाँ और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ और यह खुले रूप में बतला देना चाहता हूँ कि 'धवला' वेदनान्त चार खण्डों की टीका है-पाँचवें वर्गणाखण्ड की टीका नहीं है।
वेदनाखण्ड की आदि में दिये हुए 44 मंगलसूत्रों की व्याख्या करने के बाद श्रीवीरसेनाचार्य ने मंगल के 'निबद्ध' और 'अनिबद्ध' ऐसे दो भेद करके उन मंगलसूत्रों को एक दृष्टि से अनिबद्ध और दूसरी दृष्टि से निबद्ध बतलाया है
और फिर उसके अनन्तर ही एक शंका-समाधान दिया है, जिसमें उक्त मंगलसूत्रों को ऊपर कहे हुए तीन खण्डों-वेदणा, बंधसामित्तविचओ और खुद्दाबंधो-का मंगलाचरण बतलाते हुए यह स्पष्ट सूचना की गई है कि 'वर्गणाखण्ड' की आदि में तथा 'महाबन्धखंड' की आदि में प्रथक् मंगलाचरण किया गया है, मंगलाचरण के बिना भूतबलि आचार्य ग्रन्थ का प्रारम्भ ही नहीं करते हैं। साथ ही, यह भी बतलाया है कि जिन कदि, फास, कम्म, पयडि,