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अनेकान्त-57/1-2
के जैन सिद्धान्तभवन की प्रति में पत्र नं. 17 पर दिया हुआ है
“कम्माणं पयडिसरूवं वण्णेदि तेण कम्मपयडिपाहुडे त्ति गुणणाम, वयणकसीणपाहुडे त्ति बि तस्स विदियं णाममत्थि, वेयण कम्माणमुदयो त कसीणं णिखसेसं वणणदि अदो वेयणकसीणपाहुडमिदि, एदमवि गुणणाममेव।"
वेदनाखण्ड का विषय 'कम्मपयडिपाहुड' न होने की हालत में यह नहीं हो सकता कि भूतबलि आचार्य कथन करने तो बैठे वेदनाखण्ड का और करने लगें कथन कम्मपयडिपाहुड का, उसके 24 अधिकारों का क्रमशः नाम देकर! उस हालत में कम्मपयडिपाहुड के अन्तर्गत 24 अधिकारों (अनुयोगद्वारों) में से 'वेदना' नाम के द्वितीय अधिकार के साथ अपने वेदनाखण्ड का सम्बन्ध व्यक्त करने के लिये यदि उन्हें उक्त 24 अधिकारों के नाम का सूत्र देने की जरूरत भी होती तो वे उसे देकर उसके बाद ही 'वेदना' नाम के अधिकार का वर्णन करते; परन्तु ऐसा नहीं किया गया-वेदना' अधिकार के पूर्व 'कदि' अधिकार का और बाद को 'फास' आदि अधिकारों का भी उद्देशानुसार (नाम क्रम से) वर्णन प्रारम्भ किया गया है। धवलकार श्रीवीरसेनाचार्य ने भी, 24 अधिकारों के नाम वाले सूत्र की व्याख्या करने के बाद, जो उत्तरसूत्र की उत्थानिका दी है उसमें यह स्पष्ट कर दिया है कि उद्देश के अनुसार निर्देश होता है इसलिये आचार्य 'कदि' अनुयोगद्वार का प्ररूपण करने के लिये उत्तरसूत्र कहते हैं। यथा
“जहा उद्देसो तहा णिद्देसो त्ति कट्ट कदिअणिओगद्दारं परूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि।" __इससे स्पष्ट है कि 'वेदनाखण्ड' का विषय ही 'कम्मपयडिपाहुड' है; इसी से इसमें उसके 24 अधिकारों को अपनाया गया है, मंगलाचरण तक के 44 सूत्र भी उसी से उठाकर रखे गये हैं। यह दूसरी बात है कि इसमें उसकी अपेक्षा कथन संक्षेप से किया गया है, कितने ही अनुयोगद्वारों का पूरा कथन न देकर उसे छोड़ दिया है और बहुत सा कथन अपनी ग्रंथपद्धति के अनुसार सुविधा आदि की दृष्टि से दूसरे खण्डों में भी ले लिया गया है। इसीसे 'षट्खण्डागम' महाकम्मपयडिपाहुड (महाकर्मप्रकृतिप्राभृत) से उद्धृत कहा जाता है।