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अनेकान्त-57/1-2
जिसका प्रारम्भ 'कदि' अनुयोगद्वार से होता है और इसी से 'कदि' अनुयोगद्वार के शुरू में दिये हुए उक्त 44 मंगलसूत्रों को उन्होंने 'वेदनाखण्ड' का मंगलाचरण बतलाया है; जैसा कि उनके निम्नवाक्य में प्रयुक्त हुए "वेयणाखण्डस्स आदीए मंगलट्ठ" शब्दों से स्पष्ट है
"ण ताव णिबद्धमं लमिदं महाकम्मपपडिपाहुडस्स कदियादिचउबीसअणियोगावयवस्स आदीए गोदमसामिणा परूविदस्स भूदबलिभडारएण वेयणाखंडस्स आदीए मंगलट्ठ तत्तो आणोदूण ठविदस्स णिबद्धत्तविरोहादो ।"
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ऐसी हालत में और इससे पूर्व में डाले हुए प्रकाश की रोशनी में उक्त 'खंड' शब्द के प्रक्षिप्त होने में कोई सन्देह मालूम नहीं होता । 'खण्ड' शब्द लेखक की किसी असावधानी का परिणाम है। हो सकता है कि यह उस लेखक के द्वारा ही बाद में बढ़ाया गया हो जिसने उक्त वाक्य के बाद अधिकार की समाप्ति का चिन्ह होते हुए भी नीचे लिखे वाक्यों को प्रक्षिप्त किया है
" णमो णाणाराहणाए णमो दंसणाराहणाए णमो चरिताराहणाए णमो तवाराहणाए । णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं । णमो भयवदो महदिमहावीरवड्ढमाणबुद्धिरिसिस्स णमो भयवदो गोयमसामिस्स नमः सकलविमलके वलज्ञानावभासिने नमो वीतरागाय महात्मने नमो वर्द्धमानभट्टारकाय । वेदनाखण्डसमाप्तम् ।।" "
ये वाक्य मूलग्रन्थ अथवा उसकी टीका के साथ कोई खास सम्बन्ध रखते हुए मालूम नहीं होते-वैसे ही किसी पहले लेखक द्वारा अधिकार - समाप्ति के अन्त में दिए हुए जान पड़ते हैं । और भी अनेक स्थानों पर इस प्रकार के वाक्य पाये जाते हैं, जो या तो मूलप्रति के हाशिये पर नोट किये हुए थे अथवा अधिकार- समाप्ति के नीचे छूटे हुए खाली स्थान पर बाद को किसी के द्वारा नोट किये हुए थे; और इस तरह कापी करते समय ग्रन्थ में प्रक्षिप्त हो गये हैं । वीरसेनाचार्य की अपने अधिकारों के अन्त में ऐसे वाक्य देने की कोई