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अनेकान्त-57/1-2
(बंधण) अनुयोगद्वारों का भी यहाँ (एत्थ)-इस वेदनाखण्ड में-प्ररूपण किया गया है, उन्हें खण्डग्रन्थ संज्ञा न देने का कारण उनके प्रधानता का अभाव है, जो कि उनके संक्षेप कथन से जाना जाता है। इस कथन से सम्बन्ध रखने वाले शंका-समाधान के दो अंश इस प्रकार हैं :"उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं? तिण्णं खंडाणं। कुदो? वग्गणामहाबंधाणं आदीए मंगलकरणादो। ण च मंगलेण विणा भूदबलि-मडारओ गंथस्स पारंभदि तस्स अणाइरियत्तप्प संगादो।"
"कादि-फास-कम्म-पयडि-(बंधण)-अणियोगद्दाराणि वि एत्थ परूविदाणि तेसिं खंडगंथसण्णा-मकाऊण तिण्णि चेव खंडाणि त्ति किमळं उच्चदे? ण तेसिं पहाणत्ताभावादो। तं पि कुदो णव्वदे? संखेवेण परूवणादो।"5
उक्त, 'फास' आदि अनुयोगद्वारों में से किसी के भी शुरू में मंगलाचरण नहीं है-'फासे त्ति', 'कम्मे त्ति' ‘पयडि त्ति', 'बंधणे त्ति' सूत्रों के साथ ही क्रमशः मूल अनुयोगद्वारों का प्रारम्भ किया गया है, और इन अनुयोगद्वारों की प्ररूपण वेदनाखण्ड में की गई है तथा इनमें से किसी को खण्डग्रन्थ की संज्ञा नहीं दी गई, यह बात ऊपर के शंकासमाधान से स्पष्ट है। ऐसी हालत में सोनीजी का 'वेदना' अनुयोगद्वार को ही 'वेदनाखण्ड' बतलाना और फास, कम्म, पयडि अनुयोगद्वारों को तथा बंधण-अनुयोगद्वार के बन्ध और बंधनीय अधिकारों को मिलाकर 'वर्गणाखण्ड' की कल्पना करना और यहाँ तक लिखना कि ये अनुयोगद्वार “वर्गणाखंड के नाम से प्रसिद्ध हैं" कितना असंगत और भ्रमपूर्ण है उसे बतलाने की जरूरत नहीं रहती। 'वर्गणाखंड' के नाम से उक्त अनुयोगद्वारों के प्रसिद्ध होने की बात तो बड़ी ही विचित्र है! अभी तो यह ग्रन्थ लोकपरिचय में भी अधिक नहीं आया। फिर उसके कुछ अनुयोगद्वारों की 'वर्गणाखंड' नाम से प्रसिद्धि की तो बात ही दूर है। सोनीजी को यह सब लिखते हुए इतनी भी खबर नहीं पड़ी कि यदि अकेला वेदना-अनुयोगद्वार ही वेदनाखंड है तो फिर 'कदि' अनुयोगद्वार को कौन से खंड में शामिल किया जाएगा? 'बंधसामित्तविचओ' नाम के पूर्वखंड में तो उसका समावेश हो नहीं सकता-वह अपने विषय और मंगलसूत्रों आदि के द्वारा उससे पृथक् हो चुका