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अनेकान्त-57/1-2
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सम्बन्ध रखने वाला आस्तिक्य नाम का महान गुण है। सप्त प्रकृतियों के क्षय की अवस्था - दर्शन मोहनीय की सातों प्रकृतियों का आत्यन्तिक क्षय हो जाने पर जो आत्मविशुद्धि मात्र प्रकट होती है, वह वीतराग सम्यक्त्व हैं। प्रशस्त राग तथा प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के राग से रहित अवस्था- भगवती आराधना विजयोदया टीका में कहा गया है कि सम्यक्त्व दो प्रकार का है- सराग सम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्व। प्रशस्तराग सहित जीवों का सम्यक्त्व सराग सम्यक्त्व है और प्रशस्त तथा अप्रशस्त दोनों प्रकार के राग से रहित क्षीण मोह वीतरागियों का सम्यक्त्व वीतराग सम्यक्त्व है। सराग सम्यदृष्टि केवल अशुभकर्म के कर्तापने को छोड़ता है (शुभकर्म के कर्त्तापने को नहीं), जबकि निश्चय चारित्र के अविनाभूत वीतराग सम्यग्दृष्टि होकर वह शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मो के कर्तापने को '' छोड़ देता है। औपशमिकादि की अपेक्षा सराग और वीतराग - वीतराग और सराग के भेद से सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है। क्षायिक सम्यक्त्व वीतराग है और शेष दो अर्थात् औपशमिक व क्षायोपशामिक सराग है। व्यवहार और निश्चय सम्यक्त्व के साथ एकार्थता - शुद्ध जीव आदि तत्त्वार्थो का श्रद्धान रुप सराग सम्यक्त्व व्यवहार सम्यक्त्व है और वीतराग चारित्र के बिना नहीं होने वाली वीतराग सम्यक्त्व नामक निश्चय सम्यक्त्व है। त्रिगुप्ति रूप अवस्था – त्रिगुप्ति रूप अवस्था ही वीतराग सम्यक्त्व का लक्षण है।" गुणस्थान क्रम – चौथे से छठे गुणस्थान तक स्थूल सराग सम्यग्दृष्टि हैं; क्योंकि उनकी पहिचान उनके काय आदि के व्यापार से हो जाती है और सातवें . से दसवें गुणस्थान तक सूक्ष्म सराग सम्यग्दृष्टि हैं; क्योंकि उनकी पहिचान काय आदि के व्यापार से या प्रशम आदि गुणों पर से नहीं होती है। यहाँ अर्थापत्ति से यह बात जान ली जाती है कि वीतराग सम्यग्दृष्टि 11वें से 14वें गुणस्थान तक होते हैं। सकल मोह का अभाव हो जाने से वे ही वास्तव में वीतराग हैं या वीतराग चारित्र के धारक हैं।