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अनेकान्त-57/1-2
अपार्थप्रयास था। (ग) कठिन शब्दों के टिप्पण तथा यथावश्यक कोष निर्देश – पं. जी सा. ने कठिन शब्दों के स्पष्टीकरण के लिए टिप्पण प्रति का तो उपयोग किया ही है, साथ ही यथावश्यक अन्य स्थलों पर भी टिप्पण देकर कठिन शब्दों का अर्थ स्पष्ट कर दिया है तथा अपने अनुवाद की समीचीनता में उसे हेतु रूप में उपन्यस्त किया है। जहाँ आवश्यक समझा वहाँ कोष का भी निर्देश किया है। यथा वासुपूज्य भगवान् के लिए प्रयुक्त वसुपूज्य विशेषण का अर्थ 'कुबेर द्वारा पूज्य' करके 'वसुर्मयूरवाग्निधनाधिपेषु इति कोषः' टिप्पण में वसु का अर्थ धनाधिप (कुबेर) मानने में कोषकारों की मान्यता को उद्धृत कर दिया है। (घ) छन्दों का निर्देश – पण्डित जी सा. ने पद्मपुराण में प्रयुक्त सभी छन्दों का प्रायः निर्देश कर दिया है। किन्तु कुछ छन्दों को अप्रचलित तथा वृत्तरत्नाकर में उपलब्ध न होने के कारण प्रश्नवाचक चिन्ह लगाकर छोड़ दिया है। इस प्रसंग में 123वें पर्व के 170-179, 181-182 ये 12 श्लोक हैं। इनमें से एक श्लोक यहाँ द्रष्टव्य है
इति जीवविशुद्धिदानदक्षं परितः शास्त्रामिदं नितान्तरम्यम्। सकले भुवने रविप्रकाशं स्थितमुद्योतितसर्ववस्तुसिद्धम् ।। इसके विषम अर्थात् प्रथम एवं तृतीय पादों में दो सगण, एक जगण तथा अन्त में दो गुरु हैं तथा सम अर्थात् द्वितीय एवं चतुर्थ पादों में सगण, भगण, रगण और यगण है। यह एक अर्द्धसमवृत्त है और छन्दोमंजरी में इसे कालभारिणी तथा छन्दोऽनुशासन में मालभारणी छन्द कहा गया है। यथा
विषमे ससजा यदि गुरू भवेत समरा येन तु कालभारिणीयम्।'
ससजागा स्मर्या मालभारणी।