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अनेकान्त-57/1-2
कांडकघात, गुण श्रेणी एवं गुण संक्रमण नहीं होता इसमें अनुकृष्टि रचना
होती है। (ब) अपूर्वकरणः- अपूर्वकरण में जीवों के परिणाम समय-समय अपूर्व-अपूर्व विशुद्ध होते हैं। नीचे के और ऊपर के समयवर्ती परिणाम कभी भी समान नहीं हो सकते। अतः अनुकृष्टि रचना का अभाव है। अधःप्रवृत्तकरण में होने वाले उक्त चार आवश्यक इसमें भी होते हैं। साथ ही निम्न चार आवश्यक और होते हैं 1. गुणश्रेणी निर्जरा, 2. गुण संक्रमण, 3. स्थिति कांडकघात, 4. अनुभाग कांडकघात।
अपूर्वकरण का एक अंतर्मुहूर्त काल समाप्त होने पर अनिवृति करण प्रारम्भ होता है। (स)अनिवृत्तिकरण :- निवृत्ति = परिणामों में असमानता, अनिवृत्ति = त्रिकालवर्ती नाना जीवों के परिणामों में समानता।
इसमें जीव के प्रत्येक समय के परिणाम अनंतगुणा विशुद्ध होते जाते हैं, फिर भी सभी अनंत जीवों के एक-एक समय के परिणाम समान पाये जाते हैं। अनिवृत्तिकरण में आयु बिना शेष सात कर्मो में गुण श्रेणी निर्जरा, स्थिति कांडकघात और अनुभाग कांडकघात होता है। अनिवृत्तिकरण में ज्ञानोपयोग शुद्ध आत्मा में एकाग्र रहता है, फिर भी अभी परिणाम में मिथ्यात्व है, अभी मिथ्यात्व के निषेक उदय में आते रहते हैं। इसी प्रकार अनिवृत्तिकरण काल को संख्यात से भाग देकर बहुभाग बीत जाने पर दर्शन मोहनीय कर्म का 'अंतर-करण' होता है। अंतर करण के पश्चात मिथ्यात्व प्रकृति के परमाणु उदय आने के अयोग्य किये जाते हैं, उसे 'उपशमन करण' कहते हैं।
प्रबल शुद्धात्म भावना एवं तीव्र जिज्ञासा से उपयोग की शुद्धता प्रकट होती है और उपयोग में अबुद्धिपूर्वक करण भाव प्रकटते हैं। यहाँ दर्शनमोहनीय कर्म में अंतरकरण और उपशमकरण द्वारा उपशम होता है और अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया लोभ में अप्रशस्त उपशम होता है। अनंतानुबंधी प्रकृति का उदय अप्रत्याख्यानादि अन्य प्रकृति रूप से होता है। उसमें अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण शक्य है किन्तु उदायवली में प्रविष्ट होना शक्य नहीं है। इस प्रकार अनिवृत्तिकरण के अनंतर समय में 'अंतर' का काल प्रारंभ होते ही जीव को