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अनेकान्त-57/1-2
नहीं होता है
विनात्र रागेण वधूललाटो विनोद्यमेनापि विभातु देशः। दृष्ट्या विना तच्च मुनर्नवृत्तम् रसेन शान्तेन कवेर्न वृत्तम् ।।" अर्थात् आत्म विषयक मोहभाव से इन्द्रियों के विषयों में सुख की प्रतीति भले ही हो परन्तु उनमें सुख का लेश भी नहीं होता है। जैसे जल के बिलोने से फेन की अनुभुति उस समय भले ही हो पर घी का अंश प्राप्त नहीं होता है।
उपर्युक्त विवेचन से सुस्पष्ट है कि आचार्य श्री के शतककाव्यों में शान्तरस का सागर भरा हुआ है। (ख) छन्द ___ कवि अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए गद्य की अपेक्षा पद्य का आश्रय अधिक लेता है क्योंकि अभिप्राय को प्रभावपूर्ण ढंग से उपस्थित करने में पद्य अधिक प्रभावक बनता है। पद्यों की सहायता से ही संस्कृत का प्राचीनतम साहित्य अद्यावधि सुरक्षित है। संस्कृत की अपनी विशेषता रही है कि गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, राजनीति सदृश नीरस विषय भी छन्दोबद्ध होकर आकर्षक बन जाते हैं। आचार्य क्षेमेन्द्र ने भावानुरूप छन्दों के निवेश को उचित बताते हुए कहा है कि
वृत्तरत्नावली कामादस्थाने विविवेशिता।
कथयत्यज्ञतामेव मेखलेव गले कृता।।। अर्थात् अनुचित स्थान पर किया गया छन्दों का प्रयोग गले में धारण की गई मेखला की तरह कवि की अज्ञता का ही बोध कराता है। अतः स्पष्ट है कि छन्दों का प्रयोग भी विषय वस्तु के अनुसार ही किया जाना चाहिए। आचार्य विद्यासागर ने अपने पाँचों शतककाव्यों में भाषा को संगीतमय, भावों को सशक्त और रसाभिव्याक्ति के लिए आर्या, अनुष्टुप्, उपजाति और द्रुतविलम्बित छन्दों का प्रयोग किया है। जिस मात्रिक वृत्त के प्रथम एवं तृतीय चरण में 12 मात्रायें द्वितीय चरण में 18 मात्रायें तथा चतुर्थ चरण में 15 मात्रायें होती हैं उसे आर्या कहते हैं। सम्पूर्ण श्रमण शतक में आर्याछन्द प्रयुक्त