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अनेकान्त-57/1-2
आलंकारिकों में मतभेद रहा है। भरतमुनि शान्त रस को मानते थे या नहीं यह विवादास्पद है। अष्टम शताब्दी में उद्भट ने शान्तरस को स्पष्टतया स्वीकार कर नौ रसों की मान्यता को स्वीकार किया है। जैनाचार्य आर्यरक्षित (प्रथम शताब्दी) ने अनुयोगद्वारसूत्र में प्रशान्त रस का विवेचन किया है। अतः स्पष्ट है कि उद्भट के पूर्व भी शान्त रस की मान्यता थी। शान्तरस का स्थायिभाव शम या नित्य निर्वेद है। कविवर बनारसीदास (17वीं शताब्दी) ने शान्त रस का लौकिक स्थायिभाव माया में अरुचि तथा पारमार्थिक स्थायिभाव ध्रुव वैराग्य माना है।' लौकिक दृष्टि से भले ही शृंगार को रसराज की संज्ञा प्राप्त हो, परन्तु पारमार्थिक दृष्टि से तो शान्त ही रसराज कहा जा सकता है। आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने स्वयं लिखा है
शृङ्गार एवैकरसो रसेषु न ज्ञाततत्त्वाः कवयो भणन्ति । अध्यात्मशृंग त्विति रतिशान्तः शृंगार एवति ममशयोऽस्ति ।। अर्थात् 'रसों में श्रृंगार रस ही प्रधान है' ऐसा यथार्थ तत्त्वेत्ता कवि नहीं कहते हैं। अध्यात्म के शृंगशिखर को जो देता है वह शृंगार है ऐसी निरुक्ति से तो शान्त रस ही वास्तविक शृंगार-अध्यात्म शृंग को पहुँचाने वाला है। परमपूज्य आचार्यश्री के सभी शतक काव्यों में शान्त रस की प्रधानता है। यदि एकाध स्थलों पर वीभत्स एवं भयानक रसों की उपस्थिति है भी तो वह शान्तरस के अंग के रूप में उसे ही परिपुष्ट करती है। श्रमणशतक में स्थान-स्थान पर शान्तरस दृष्टिगत होता है। साधु के स्वरूप वर्णन में शान्तरस की अभिव्यञ्जना अत्यन्त मनोरम है। यथा
निस्संगः सदागतिः विचरतीव कन्दरेषु सदागतिः। ततो भवति सदागतिः स्वरसशमितभारसदागतिः।।'
अर्थात् जिसने स्वरस-स्वानुभव रूप जल से कामरूपी अग्नि को शान्त कर दिया है ऐसा पवन के समान निरजंन साधु वन की गुफाओं में विचरण करता है। इस कारण उसे सदागति (निर्वाण) की प्राप्ति होती है।
यहाँ यमक अलंकार का प्रयोग भी रस प्रतीति में किञ्चित् भी बाधा