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अनेकान्त-57/1-2
पर आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि-साहचर्याल्लोकवत्। तद्यथा-छत्रिणो गच्छन्ति इति अच्छत्रिषु छत्रव्यवहारः । एवमिहापि मिश्रयोरन्यतरग्रहणं भवति । अर्थात् जैसे लोक में साहचर्य सम्बन्ध से छत्रधारियों के साथ छत्रविहीन व्यक्तियों का भी व्यवहार में ग्रहण हो जाता है, वैसे यहाँ पर भी आवश्यकतानुसार दोनों लेश्याओं में से किसी एक लेश्या का ग्रहण हो जायेगा। __ कहीं कहीं सूत्र में एक से अधिक बार 'च' शब्द का प्रयोग हुआ है तो उसकी सूत्र में सार्थकता बताने का भी आचार्य पूज्यपाद ने प्रयास किया है। उदाहरण के लिये तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय का प्रथम सूत्र है-'औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च'। यहाँ इस सूत्र में जीव के पाँच भावों का उल्लेख किया गया है। अतः सामान्य नियम के अनुसार द्वन्द्व समास करके सूत्र इस प्रकार बनेगा- 'औपशामिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिकाः' किन्तु सूत्रकार ने एक समस्त पद न बनाकर सूत्र में एकाधिक पदों का समावेश किया है और दो चकारों का प्रयोग किया है। इसके औचित्य को आचार्य पूज्यपाद ने व्याकरण के माध्यम से स्पष्ट करते हुये लिखा है-नैवं शक्यम्, अन्यगणापेक्षया इति प्रतीयेत। वाक्ये पुनः सति 'च' शब्देन प्रकृतोभ्यानुकर्षः कृतो भवति । अर्थात् ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिये क्योंकि यदि सूत्र में 'च' शब्द न रखकर द्वन्द्व समास करते तो मिश्र की प्रतीति अन्य गुण की अपेक्षा होती, किन्तु वाक्य में 'च' शब्द के रहने पर उससे प्रकरण में आये हुये औपशमिक और क्षायिकभाव का अनुकर्षण हो जाता है। इसी प्रकार उपर्युक्त सूत्र में ही शनाकार का कहना कि-भावों के लिङ्ग और संख्या के समान स्वतत्त्व पद का वही लिङ्ग और संख्या प्राप्त होती है- भावापेक्षया तल्लिङ्गसंख्याप्रसङ्गः स्वतत्त्वस्येति च? 24 आचार्य पूज्यपाद इसका समाधान करते हुये कहते हैं कि-'न', उपात्तलिङ्गसंख्यत्वात् । तद्भावस्तत्त्वम्। स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वमिति । अर्थात् नहीं, क्योंकि जिस पद को जो लिङ्ग और संख्या प्राप्त हो गई है उसका वही लिङ्ग और संख्या बनी रहती है। स्वतत्त्व का अर्थ है स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वम् - जिस वस्तु का जो भाव है वह तत्त्व है और स्व तत्त्व स्वतत्त्व है।
इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र के चतुर्थ अध्याय का इकतीसवाँ सूत्र है