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अनेकान्त-57/1-2
है और मान का दुष्परिणाम एक नया अनुभव दे जाता है, जिससे आस्था का निर्माण होता है। संकल्प का जागरण भी तभी हो पाता है। वैद्यराजों द्वारा अनेक प्रयत्न करने के बावजूद सिरदर्द दूर न होने पर क्रोधित होकर राजा भोज ने आयुर्वेद के ग्रन्थों की आहुति दे दी। लेकिन जीवक ने उसके सिर में से मछली निकालकर जब दर्द दूर कर दिया तो उसके मन में आयुर्वेद के प्रति पुनः आस्था जाग गई। अतः किसी कार्य की प्रतिपत्ति होने के लिए आस्था का निर्माण अत्यावश्यक हो जाता है। मृदुता लाने के लिए साधक में इसी आस्था, पुरुषार्थ और आत्मनिरीक्षण की जरूरत होती है। मार्दव का अर्थ :- मार्दव-धर्म का विरोधी भाव मान है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत और शील में से किसी पर भी अभिमान नहीं करना मार्दव-धर्म है
कुल-रूव-जादि-बुद्धिसु, तब-सुद-सीलेसु गारवं किंचि।
जो ण वि कुक्षदि समणो मद्दवधम्म हवे तस्स।। (बा. अ. 72) आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार (1.25) में ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और वपु इन आठ मदों से विरहित को मार्दव माना है। उमास्वामी ने कुल, रूप, जाति और श्रुत के बाद ऐश्वर्य, विज्ञान, लाभ और वीर्य को गिनाकर दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा को निग्रह करने को मार्दव-धर्म माना है। चारित्रसार (प. 28) में भी लगभग यही बात कही गयी है। अकलंक ने इसमें यह और जोड दिया कि दूसरे के द्वारा परिभव के निमित्त उपस्थित किये जाने पर भी अभिमान का अभाव होना मार्दव-धर्म है (त. वा. , 1.6)। आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि (पृ. 18), कार्तिकेयानुप्रेक्षा (315) आदि ग्रन्थों में भी मार्दव-धर्म का वर्णन लगभग इसी प्रकार मिलता है।
स्थानाङ्ग में आये लाघव धर्म (10.16) को किसी सीमा तक मार्दव में सम्मिलित किया जा सकता है। यद्यपि लाघव का अर्थ उपकरण की अल्पता है पर वहां ऋद्धि, रस और सात (सुख) इन तीन गौरवों का जो त्याग बताया गया है (प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति पत्र 135) वह त्याग मार्दव की सीमा में आ