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अनेकान्त-57/1-2
अहङ्कार जैसा भ्रम और अज्ञान दूसरा नहीं होता। बीज के चारों तरफ अहङ्कार की खोल लगी है जिससे बीच पनप नहीं पाता। स्वाभिमान की सीमा में अहङ्कार ठीक कहा जा सकता है पर उससे आगे बढ़कर अभिमान को प्रशस्त नहीं कहा जा सकता मृत्यु के पूर्व वह निश्चित रूप से टूटना चाहिए।
मात्र जिज्ञासु रहना अहकारिता को बढ़ावा देना है। उसमें जब तक मुमुक्षुवृत्ति जाग्रत नहीं होगी रूपान्तरित होने की स्थिति में वह नहीं आ सकता। साधक के लिए जिज्ञासु के साथ-साथ मुमुक्षु भी होना चाहिए। जिज्ञासा एक दर्शन है, मुमुक्षा एक धर्म है। जिज्ञासा से अहङ्कार मजबूत होता है और मुमुक्षा से वह अहङ्कार पिघलता है। मुमुक्षु आत्माज्ञान से पदार्थो को जानता है, दर्शन से श्रद्धान् करता है और आचरण से कर्मो के आवरण को दूर करता है।
अहङ्कारी लोकेषणा के पीछे दौड़ता रहता है, मान का पोषण करता है और दूसरे को काटने में आनन्द लेता है। शेषनाग में मान नहीं होता पर बिच्छू स्वल्प जहर होने पर भी अहंकारवश डंक ऊपर उठाये घूमता रहता है। वह घनघोर हिंसक भी होता है। उसमें प्रतिक्रिया और प्रतिशोध की आग सुलगती रहती है। उसकी मानसिकता कठोरता में जीती रहती है। उसकी यह कठोरता कभी शैल के समान रहती है, कभी अस्थि जैसी रहती है, कभी काष्ठ के समान होती है तो कभी लता जैसी भी दिखती है। यह उसकी कठोरता का क्रम है। इस कठोरता को अहङ्कारी जीवित रखना चाहता है। क्रोधी क्रोध निमित्तक पदार्थ को नष्ट करना चाहता है, पर मानी उसे सम्भाल कर रखना चाहता है। अहङ्कार से मुक्त होने के उपाय :- इस आत्मघाती अहङ्कार को समाप्त करने के लिए धर्म ही एक सच्चा शरण है। क्षान्ति, मृदुता, ऋजुता और आत्मालोचन उसके द्वार हैं। देहादि में एकत्व बुद्धि छोड़कर, समता भरा आचरण उसका एक सुनियोजित महापथ है, जिस पर चलकर अहङ्कार से मुक्त हो सकता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और उपचार (पञ्च परमेष्ठी वंदन) रूप विनय का आचरण उसे रूपान्तरित कर सकता है।